वैदिककालीन शिक्षा

वर्तमान की जड़ अतीत में होती है। भारत के अतीत का गौरव वर्तमान को उज्ज्वल करता हुआ उसके भविष्य को भी आकर्षक बना रहा है। प्राचीन भारत की यह एक विशेषता है कि इसका निर्माण राजनैतिक, आर्थिक अथवा सामाजिक क्षेत्र में न होकर धर्म-क्षेत्र में हुआ था। जीवन के प्रायः सभी अंगों में धर्म का प्राधान्य था। भारतीय संस्कृति धर्म की भावनाओं से ओत-प्रोत है। हमारे पूर्वजों ने जीवन की जो व्यवस्था की तथा अपने कर्तव्यों का जो विश्लेषण किया, वह सभी उनके बृहत्तर अध्यात्मज्ञान की और संकेत करता है। उनकी राजनैतिक तथा सामाजिक वास्तविकताएँ केवल भौगालिक सीमाओं के अन्तर्गत ही बँधकर नहीं रह गयीं। उन्होंने जीवन को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखाऔर सर्वभूत हितेः रतः होना ही अपना कर्त्तव्य समझा। भारत ने केवल भारतीयता का ही विकास नहीं किया, उसने चिर-मानव को जन्म दिया और मानवता का विकास करना ही उसकी सम्यता का एकमात्र उद्देश्य हो गया। उसके लिये वसुधा कुटुम्ब थी।



राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में धर्म का प्राधान्य होने से जीवन में एक अलौकिक विचारधारा का समावेश हुआ। प्राचीन हिंदुओं की राजनीति हिंसा, द्वेष तथा स्वार्थ पर अवलम्बित न होकर प्रेम, सदाचार और परमार्थ पर आधारित थी। व्यक्ति का विकास ही समाज का विकास समझा जाता था। आर्थिक क्षेत्र में भी जीवन की कोमल व पवित्र धार्मिक भावनाएँ क्रियाओं का निर्देशन करती थीं; यहाँ तक कि सम्पूर्ण भारतीय सामाजिक संगठन मानव की भूलभूत उदात्त भावनाओं तथा दिव्य सिद्धान्तों पर आधारित था। जीवन का एक उद्देश्य था, एक आदर्श था और उस आदर्श की प्राप्ति संसार की सभी भौतिक विभूतियों से उच्चतर समझी जाती थीप्राचीन भारत की शिक्षा का विकास भी इसी आधार पर हुआ। भारत में शिक्षा तथा विज्ञान की खोज केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं हुई, अपितु वे 'धर्म' के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करने का एक क्रमिक प्रयास माने गये। मोक्ष ही जीवन का चरम विकास था। यही कारण है कि जीवन की सम्पूर्ण बहुमुखी क्रियाएँ धर्म के मार्ग पर चलकर ही अपने एकमात्र गंतव्य ‘मोक्षकी ओर अग्रसर हुईं। भारत के सम्पूर्ण साहित्य, विज्ञान और कला का सृजन ही उसके अभीष्ट पर पहुँचने का प्रयास है। प्राचीन भारतीय साहित्य एक प्रकार से धर्म का वाहन है, जैसा कि मैक्डॉनल ने कहा है, 'प्राचीनतम वैदिक काव्य के सृजन-काल से ही हम भारतीय साहित्य पर एक प्रकार से लगभग एक हजार वर्ष तक धार्मिक छाप लगी हुई पाते हैं, यहाँ तक कि वैदिककाल के वे अन्तिम ग्रन्थ, जिन्हें हम धार्मिक नहीं कह सकते, अपना धर्म-प्रसार का उद्देश्य रखते हैं। यह वास्तव में वैदिक' शब्द से प्रकट होता है क्योंकि 'वेद' का अर्थ ज्ञान (‘विद’ मूल धातु से) होता है तथा सम्पूर्ण पवित्र- ज्ञान का साहित्य की शाखा के रूप में बोध कराता है।' (डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी की पुस्तक एंशियंट इण्डियन एजुकेशन की प्रस्तावना में उद्धृत)। 


प्राचीन भारतीय शिक्षा का विकास भी दार्शनिक परम्परा के अनुरूप ही हुआ है। जीवन तथा संसार की क्षणभंगुरता का अनुमान तथा मृत्यु एवं भौतिक सुखों की सारहीनता के भाव ने उन्हें एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान किया और वस्तुतः सम्पूर्ण शिक्षा-परम्परा इन्हीं सिद्धान्तों पर विकसित हुई। यही कारण था कि भारतीय ऋषियों ने एक अदृश्य जगत् और आध्यात्मिक सत्ता के संगीत गाये और अपने सम्पूर्ण जीवन को भी उसी के अनुरूप ढाला। इस भौतिक जगत् को वे कभी गंभीरतापूर्वक न ले सके और उनकी सभी प्रवृत्तियाँ वाह्य विकास की ओर न होकर आन्तरिक जगत् के सृजन और विकास में लग गयीं। यद्यपि मृत्यु उनके भय का कारण नहीं थी, तथापि मृत्यु तथा संसार में आवागमन से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने एक अमर और स्थायी जीवन की कल्पना की। जगत् उन्हें मिथ्या लगा और जीवन का एकमात्र सत्य प्रतीत हुआ इस जीवत्मा का परमात्मा में विलीनीकरण। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य ही ‘चित्तवृत्तिनिरोध' हो गया।


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