बाँझ साँझ

कस्तूरबा गाँधी अस्पताल का मैटरनिटी वार्ड, अर्थात् प्रसूति गृह।


नई जिन्दगियाँ आने की प्रक्रिया में कितनी ही जानों के चले जाने का खतरा।


हाँ, कितनी ही जानों के अस्तित्व को खतरा। ऐसे ही खतरनाक भंवर में उलझी जाती कमला। आशा और निराशा की तराजू में झूलती कमला। कमला, जो आठ वर्ष के वैवाहिक जीवन में पहली बार गर्भवती हुई है। किसी भी क्षण उसका बाँझपन टूट जायेगा और बन्द हो जायेगें जहरीले बाण उगलते अपनों/परायों के तरकशी मुंह? क्या बन्द हो जायेंगे? शायद हाँ । शायद नहीं भी!



स्टैचर की खड़खड़ सकती हुई बैड नं. 16 पर पहुँच गई है। दर्द से चीखती महिला। बच्चे को जन्म देने से पूर्व के दर्द, लैबर-पेन्स। कमला के पलंग की ओर एक कटाक्ष करता तीर सधा- साढ़े नौ महीने की हो गई। अभी तक दर्द तो छोडो, दर्द की आहट तक नहीं।


एक और बाण- बाँझ औरत से तो आदमी । अविवाहित ही भला। कुँआ खोदे और पानी का चश्मा तो दूर चुल्लुभर बूंद तक न फूटें।


एक अन्य गर्भवती महिला को स्ट्रेचर पर लिटा लिया गया है। वह भी दर्द से तिलमिला रही है।


कमला है कि दर्द के लिए तिलमिला रही है। पूरे चार दिन हो गये हैं वह प्रसूतिगृह में दाखिल है। पहले भी तीन दिन रह कर चली गईथी। डाक्टरों ने वापिस घर भेज दिया था। लेबर पैन्स हों तब ले आना!' ।


आखिर इस बार भी डाक्टर कितने दिन तक पलंग का अनावश्यक रूप से घिरा रहना सहन करेंगे। अस्पतालों में रोगियों की इतनी भीड़ रहती है कि यह सम्भव ही नहीं है वहाँ कोई व्यक्ति बिना वजह जगह घेरे पड़ा रहे। प्रसूति गृह भी अपवाद नहीं है। गर्भवती महिलाओं को यहाँ प्रायः दो में से एक ही छाँट करनी होती है- स्टैचर पर लेटो, चलो डिलीवरी कक्ष में अथवा टैक्सी में बैठो, जाओ घर वापिस।


स्टैचर उस दूसरी महिला को लेकर वार्ड के फर्श पर सरकने लगा है। इधर एक झल्लाई नर्स हाथ में थर्मामीटर लिए कमला के निकट खड़ी है। तुम्हें लैबर पेन्स होगें भी या नहीं! थर्मामीटर कमला के मुँह में लगाते हुए नर्स ने कहा। चली आती हैं। वृहन्नला कहीं की !


कमला के कान ही नहीं मन-मस्तिष्क तक रक्तरंजित हो गये हैं।


क्यों? व्यंग-बाण जो ठुस गया है उसके कानों में।


क्या कहते हो! यह तो थर्मामीटर है।


है तो। पर नर्स ने अभी बाण भी छोड़ा था थर्मामीटर के साथ ही। थर्मामीटर दिखाई देता है, वह बाण नहीं। थर्मामीटर में भी तो पारा ही किसी अंक तक चढ़ा दिखाई देता है, बुखार तो अदृश्य ही रहता है।


कमला के माथे, भोहों और कनपटियों पर पसीने के अंकुर फूट आये हैं।


यह तो गनीमत है कि कमला वृहन्नला का अर्थ नहीं जानती।


16 नं.पलंग वाली महिला स्ट्रेचर पर लेटी उसके सामने से गुजर चुकी है। नर्स भी कमला का बुखार उसके पलंग पर लटकी तख्ती पर लिखकर आगे वाली महिला के पलंग पर पहुँच गई है।


कमला भी कहीं पहुँचना चाहती है


अपनी ससुराल? हाँ। और अपने पीहर? हाँ, वहाँ भी।


परन्तु अब की बार वह अकेली नहीं जायेगी। खाली गोद जाने की अपेक्षा वह.....


छी-छीः। उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। यह सोचने की सही दिशा नहीं है।


तो क्या ताने देने वालों की दिशा सही है।


सही दिशा क्या है, यह सास भी तो समझे। सास?


कमला का गला सूखने लगा है। माथे से पसीना पोंछते हुए उसने हाथ बढ़ा कर लोटा उठाया, गिलास में थोड़ा पानी उंड्रेला और गले के नीचे उतार लिया।


सही और गलत का अन्तर ननद, जैठानी, देवर, देवरानी भी तो समझें। पड़ोसिनों को भी तो कोई समझाये।


आखिर कमला के सब्र की भी तो सीमा हैकहते है सम्पन्न परिवार की बेटी जब अपने से हलके घर में बहू बन कर जाती है तो बेटों से ज्यादा इज्जत पाती है। परन्तु कमला को घर की लक्ष्मी घर वालों के पैर की जूती भी क्यों रह सकी? क्योंकि वह पुत्रवती न हो सकी?


क्या इसके लिए केवल वही जिम्मेदार थी? उसकी सास तो ऐसा ही मानती थी। सुबह चार बजे उठकर जो कमला काम में लगती कि रात्रि के 11 बजे तक अकेली लगी रहती। कमला के कार्यरत हाथों से होड़ यदि कोई लगाती तो उसकी सास की जुबान जो किसी फैक्ट्री की चिमनी की तरह आग उगलती


मेरे बेटे ने ब्याह करके क्या पाया। अच्छे घर का क्या अचार डालूं। मेरा सबसे लाड़ला बेटा। कितना ध्यान रखता है मेरा, कितनी इज्जत करता है। कलियुग में मेरा सतयुगी बेटामुझे क्या पता था। वरना मैं तुझ बाँझ को पल्ले बाँधती उसके? जिस पेड़ पर फल न लगे, उसे कौन अपने आँगन में ठहरने देता है। पता नहीं है! किस जन्म का कर्ज चुकाने तू हमारे घर में आई है!


आगे और----