विश्व का प्राचीनतम चिकित्साशास्त्र : आयुर्वेद

राजनीति के क्षेत्र में वर्तमान युग में पाश्चात्य लोगों का अधिकार होने के कारण उनकी डॉक्टरी चिकित्सा पद्धति का विश्व में अधिकाधिक प्रसार हो रहा है। यह केवल ढाई-तीन सौ वर्ष की घटना है। किन्तु सृष्टयुत्पत्ति के समय से ढाई-तीन सौ-वर्ष पूर्व तक लाखों वर्ष सारे विश्व में आयुर्वेदिक चिकित्सा ही हुआ करती थी। आधुनिक सभी प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियाँ उस मूल प्रचीन आयुर्वेदीय चिकित्सा-पद्धति की ही टहनियाँ हैं।


आयुर्वेद एक दैवीय शास्त्र है जिसके प्रणेता धन्वन्तरि थे। वैदिक संस्कृति के अनुसार प्रथम पीढ़ी के देवतुल्य प्रवीण और विद्वान् व्यक्तियों द्वारा ही सारी विद्याएँ और शास्त्र चलाए गए। वहीं से गुरु-शिष्य परम्परा आरम्भ हुई। अतः वैदिक संस्कृति की किसी भी शाखा में प्रत्येक व्यक्ति अपने गुरु का उल्लेख करता है। अतीत में चाहे जितना पीछे हम झाँककर देखें, हमें कोई भी विद्या अपूर्ण अवस्था में नहीं दीखती, अपितु परिपूर्ण अवस्था में ही दीखती है। पाश्चात्यों का सिद्धान्त इससे एकदम उल्टा है। वे सोचते हैं कि बन्दर से मानव बने और वनमानुष अपने आप प्रगति करता गया। पिछड़ा हुआ आदमी यदि अपने आप प्रगति करता, तो विश्व की सारी आदिवासी जातियाँ आज तक विकसित हो जानी चाहिए थीं और विद्यालयों में विद्वान्-से-विद्वान् शिक्षक नियुक्त करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। अतः पाश्चात्य धारणा सही नहीं है। विद्या की तो क्षति और अधोगति होती रहती है। जैसे कोई प्रकाण्ड पण्डित, जितना वृद्ध होता जाता है, उतनी ही उनकी कमाई विद्या उसके मस्तिष्क से लुप्त होती रहती है।



प्राचीन काल में आयर्वेद का ही विश्व में सर्वत्र प्रसार इसलिए था कि सर्वत्र वैदिक जीवन-प्रणाली ही प्रचलित थी। आयुर्वेद का प्राचीन विश्व-प्रसार वैदिक जीवन-प्रणाली के विश्व-प्रसार का एक ठोस सबूत है।


जिसका जहाँ अधिकार हो, उसकी अपनी विशिष्ट चिकित्सा-पद्धति हो तो वह उसे निजी रियासत में लागू करता है। जैसे भारत पर अधिकार जमाने के पश्चात् अंग्रेजों ने शनैः-शनैः आयुर्वेद को दबाकर पाश्चात्य डॉक्टरी चिकित्सा को प्रोत्साहन दिया। अब भारत स्वाधीन होने पर भी उसी पाश्चात्य चिकित्सा-पद्धति का प्रचलन किया जा रहा है।


प्राचीन समय में संस्कृतभाषी वैदिक क्षत्रियों का दुनिया पर राज्य था, तब उनके


शासन में अपनी आयुर्वेद चिकित्सा-पद्धति सर्वत्र लागू थी। ब्रिटिश शासनकाल में मद्रास प्रान्त के गवर्नर लॉर्ड एम्पथिल (1900-1906) थे। सन् 1905 में मद्रास द किंग इंस्टीट्यूट ऑफ प्रीवेंटिव मेडीसीन का उद्घाटन करते समय अपने भाषण में कहा था कि 'यूरोप के लोग जब जंगली अवस्था में रहते थे, उस प्राचीन अतीत में भारत के लोगों को रोग-प्रतिबंधक और रोगनिवारक चिकित्सा-प्रणाली के मुख्य तत्त्व भली प्रकार ज्ञात थे। हो सकता है विश्व के लोग जानते न हों कि आयुर्वेदशास्त्र का जन्म भारत में ही हुआ। आयुर्वेद भारत की ही विद्या है। भारत से अरबों ने सीखी और अर्बस्थान से यह विद्या यूरोप गयी। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के डॉक्टर लोग अरबी वैद्यों से भारतीय आयुर्वेद सीखते रहे। उसके कई शताब्दी पूर्व अरबी विद्वानों ने धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत आदि वैद्यों के विख्यात ग्रन्थों से आयुर्वेद का अध्ययन किया था। बड़े आश्चर्य की बात है कि मानवीय सभ्यता, विद्या और प्रगति का केन्द्र शनैः-शनैः पूर्ववर्ती देशों से पश्चिम की और जाते-जाते पूर्व से उसका नामोनिशान तक मिट गया। अब हमें यह पता लग रहा है कि हिंदू-शास्त्रों में स्वच्छता के सही नियम भी नियम भी अन्तर्भूत हैं। स्मृतिकार मनु मानवजाति के अतिश्रेष्ठ पथ-प्रदर्शकों में से एक हैं जिन्होंने स्वच्छ सामाजिक जीवन के आदर्श नियम बनाए हैं। (भारत इण्डिया एज़ सीन एण्ड नोन बाई फॉरेनर्स, संकलनकर्ता : जी.के. देशपाण्डे, पृ. 1-2)।


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