आयुर्वेद : इतिहास, उपादेयता एवं प्रासंगिकता

भगवान् ब्रह्मा के मुख में निर्गत चारों वेदों में से प्रथम ऋग्वेद एक है, जिसका उपवेद आयुर्वेद है। संसार में जब बीमारियाँ बढ़ने लगीं, तब इन रोगों ने मानव जीवन के उद्देश्य, जैसे- धर्म- अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न की। इसके समाधान हेतु एक विशिष्ट क्रम में आयुर्वेद को स्वर्ग से धरती पर लाया गया। ब्रह्मा ने यह ज्ञान दक्ष प्रजापति को, दक्ष प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को, अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को, इन्द्र ने भरद्वाज तथा धन्वन्तरि आदि को दिया उन्होंने अपने शिष्यों के मध्यम से इस ज्ञान का संहिताकरण किया। आज भी ये संहिताएँ अपने मूल रूप में विद्यमान हैं, उदाहरण के लिए चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता एवं काश्यपसंहिता। बाद में इनको सरल करने हेतु अष्टांगसंग्रह, अष्टांगहृदय, माधवनिदानसंहिता, भावप्रकाश, शाङ्गधरसंहिता आदि अनेक ग्रन्थ रचे गये। अलग-अलग टीकाकारों ने कठिन संस्कृत-शब्दों को सरल-सुबोध बनाने के लिये अपना मत प्रकाशित किया है।


आयुर्वेद लिखनेवाले पुरुष को आप्त कहा जाता है, जिनको त्रिकाल ( भूत, वर्तमान, भविष्य) का ज्ञान था। यद्यपि आयुर्वेद बहुत पुराने काल में लिखा गया है, तथापि वर्तमान में नये रूप में उभरनेवाली हर बीमारियों का समाधान इसमें समाहित है। आयुर्वेद मतलब जीवनविज्ञान है। अतः यह सिर्फ एक चिकित्सा-पद्धति नहीं है, जीवन से सम्बधित हर समस्या का समाधान इसमें समाहित है।


आयुर्वेद की उपयोगिता


आयुर्वेद के दो मुख्य प्रयोजन हैं :


आयुर्वेद के दो मुख्य प्रयोजन हैं :


1. स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना।


2. रोगी व्यक्ति के रोग की चिकित्सा।



स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना


स्वस्थ का मतलब सिर्फ रोगमुक्ति ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद के अनुसार एक व्यक्ति को स्वस्थ तब कहेंगे जब उसके दोषशारीरिक (वात, पित्त, कफ) तथा मानसिक (रज व तम) समान हों, अग्नि (पाचनशक्ति) सामान्य हो, धातु (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र) सम हो, मल-मूत्रादि क्रिया उचित प्रमाण तथा समय पर हो तथा आत्मा, इन्द्रियाँ व मन प्रसन्न हो। आयुर्वेद के अनुसार सुख का मतलब आरोग्य है एवं दुःख का मतलब रोग।


रोगी व्यक्ति के रोग की चिकित्सा


आयुर्वेद के अनुसार सम्पूर्ण चिकित्सा को त्रिविध रूप में विभाजित किया गया है :


1. देव व्यापाश्रय चिकित्सा


2. युक्ति व्यापाश्रय चिकित्सा


3. सत्त्वावजय-चिकित्सा


रोग मुख्यतः दो प्रकार का होता है :


शारीरिक व मानसिक। शारीरिक रोग ठीक करने हेतु देव व्यापाश्रय व युक्ति व्यापाश्रय चिकित्सा की जाती है। जबकि मानसिक विकार को चिकित्सा हेतु सत्त्वावजयचिकित्सा की जाती है।


देव व्यापाश्रय चिकित्सा


मंत्रप्रयोग, औषधि-धारण, मणिधारण, मंगलकर्म, बलि (दान), उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, प्रणिपात, गमन (तीर्थयात्रा) आदि कर्म इस चिकित्सा के अन्तर्गत आते हैं।


युक्ति व्यापाश्रय चिकित्सा


यह आवश्यक आहार-विहार तथा औषधि द्रव्य द्वारा किया जाता है। आधुनिक चिकित्साशास्त्र में यह मुख्य चिकित्सा है। आयुर्वेद में भी आजकल ज्यादातर इसी के ऊपर ध्यान दिया जाता है जो कि अपूर्ण चिकित्सा है। औषधि-चिकित्सा के अन्तर्गत समस्त शस्त्र कर्म भी आ जाते हैं। जो मुख्यतः सुश्रुतसंहिता में वर्णित है।


सत्त्वावजय-चिकित्सा


इसका मतलब है अहित अर्थ से मन को दूर रखना। यह ज्ञान, विज्ञान (वेद, पुराण, धर्मग्रन्थ आदि), धैर्य, स्मृति (स्मरणशक्ति अर्थात् बीते हुए कर्म तथा उसके फल को याद रखना तथा पढ़े हुई या सुनी हुई अच्छी बातें याद रखना), समाधि आदि द्वारा मानसिक बीमारी ठीक की जा सकती है। 


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