आयुर्वेद का लोकोपकारक स्वरूप

'चराचर जीव-जगत् को परमपिता परमेश्वर द्वारा वरदानस्वरूप प्रदत्त जीवन-अवधि का नाम ‘आयु' है। मानव ही नहीं, जीवमात्र में जब तक प्राणन व्यापार की शक्ति विद्यमान है, उस कालावधि को भगवती श्रुति ने ‘आयु संज्ञा प्रदान की है- यावद्ध्यंस्मिन् शरीरे प्राणो वसति तावदायुः। (ऋग्वेदीया कौषीतकिब्राह्मणारण्यणकोपनिषद्, 3.2)। यहीं पर आयु को प्राण तथा प्राण को आयु कहा गया है। प्राण तत्त्व अमृतस्वरूप है। प्राण-शक्ति ही वह साधन है जिसके माध्यम से इसी पृथिवीलोक में रहते हुए अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्त किया जा सकता है। ‘आयु' शब्द की निष्पत्ति पाणिनीयव्याकरण के अनुसार अदादिगण पठित परस्मैपदी अकर्मक इण् गतौ (धातु क्रमांक 1117) धातु से होती है (पाणिनीयधातुपाठः, पृ. 83)। अमरकोशकार (ईसापूर्व प्रथम शती) ने आयुर्जीवितकालः (अमरकोशः, द्वितीयकाण्डः, अष्टमः क्षत्रियवर्गः, 119) कहकर जीवनकाल को आयु का पर्याय जाना है। ‘सुधारामाश्रमी' टीकाकार ने ‘आयु' शब्द की गत्यर्थक इण् धातु से एति गच्छतीति अर्थात् जो समाप्त-क्षीण होती जाती है, वह ‘आयु' है, ऐसी व्युत्पत्ति की है।



वैयाकरण श्वेतवनवासी उपर्युक्त निरुक्ति का ही समर्थन करते हुए कहते हैं- जो व्यतीत हो रही है, उसका नाम आयु है, यही जीवन परिमाण है- एति गच्छतीति आयुः जीवनपरिमाणम्। (उणादिसूत्रवृत्तिः 1.2, 2.120)। पूज्य सदुरुदेव श्रीविद्यादीक्षागुरु ब्रह्मलीन डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, मन्दसौर (म.प्र.) निवासी द्वारा सम्पादित ‘उणादि प्रयोगयशस्विनीमञ्जूषा' ग्रन्थ में दो बार उणादिसूत्र के पृथक्-पृथक् प्रत्ययों से व्युत्पन्न ‘आयु' शब्द की निरुक्ति की गई है, यथा- (क) एति गच्छति सर्वदैव विनश्यतीति आयुः अर्थात् जो सर्वदा नष्ट ही होती जाती है, उसका नाम 'आयु' हैयह शब्द कृ-वा-पा-जि-मि-स्वादि- साध्यशूभ्य उणे (1-1) उणादिसूत्र से उण् प्रत्यय लगाने पर सिद्ध होता है। (ख) एति निरन्तरं गच्छतीति आयुर्वयः अर्थात् जो निरन्तर समाप्तप्राय होती जाती है, उसका नाम ‘आयु' है जो वय (उम्रअवस्था) का पर्याय है। एतेर्णिच्च (उणादिसूत्र, 2.118) सूत्र के द्वारा उस् प्रत्यय लगाने पर नपुंसक लिङ्गवाची आयुष, आयुस् शब्द निष्पन्न होता है।


वैदिक वाङ्मय में पुरुष की आयु का उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेदीय ऐतरेयब्राह्मण (18.5) में शतायुर्वे पुरुषः के प्रमाणानुसार पुरुष की आयु उपलक्षणरूप से एक सौ वर्ष उल्लिखत की गई है। अथर्ववेद (3.11.3-4 तथा 20.96.8-9) में शतायु का निर्देश प्राप्त होता है। ऋग्वेद (1. 10.11, 1.37.15 तथा 2.41.17) आदि में आयुष्मान् मनुष्यों का उल्लेख है। शुक्लयजुर्वेदीय माध्यन्दिन वाजसनेयीसंहिता (36.24) का यह मंत्र तो प्रत्येक जनसाधारण के कण्ठ में विद्यमान है जिसमें ऋषिवर का कथन है कि हम सभी एक सौ शरद ऋतुओं पर्यन्त आयुष्य भोग करते रहें...जीवेम शरदः शतम्। मानुषीसृष्टि के आदिपुरुष भगवान् मनु अपनी सन्तति मनुष्य की युगानुसार आयु-निर्धारण करते हुए कहते हैं कि सत्ययुग में मनुष्य रोगरहित, सिद्ध हुए सभी पुरुषार्थों से युक्त, चार सौ वर्ष की आयुवाले होते हैं। त्रेतादि युगों में इनकी आयु एक-एक चरण क्रमशः कम होती जाती है


अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः।


कृते त्रेतादिषु येषामायुर्हसति पादशः॥


-मनुस्मृति, 1.73


आयुर्वेदाचार्य शाङ्गधर ने आयुस्तत्त्व की भगवद्भक्ति तथा अध्यात्मपरक परिभाषा करते हुए कहा है कि मूलाधार (गुदाभाग) से उत्पन्न प्राणवायु नाभिस्थान से ऊपर जाकर, हृदयकमल का संस्पर्श करके जब श्रीहरि विष्णुभगवान् के चरणारविन्द युगल का मकरन्द रसामृत पान करने के लिए कण्ठदेश से बाहर निकलता है। वहाँ से आकाश प्रदेश में अमृतपान करके अत्यन्त वेग से पुनः आता है। सम्पूर्ण शरीर को आनन्दित करता हुआ, जठराग्नि को उज्जीवित करता हुआ जो इस प्रकार शरीर और प्राण के संयोग से अवस्थित रहता है, उसे 'आयु' नाम से उच्चरित किया जाता है- नाभिस्थः प्राणपवनः संयोगादायुरुच्यते।। 


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