आयुर्वेद का संक्षिप्त दर्शन

 इश्वर ने सभी प्राणियों के कल्याण के  लिए प्रकृति का निर्माण किया। । भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (13.19) में कहा है- प्रकृति पुरुषं चैव विद्यनादी उभावपि अर्थत् प्रकृति और पुरुष- दोनों को तू अनादि जान। प्रकृति में सभी वनस्पतियाँ आती हैं और इन वनस्पतियों से बना आयुर्वेद अर्थात् आयुर्वेद प्राकृतिक चिकित्सा का एक मुख्य अंग है। इसीलिए आयुर्वेद (आयुः + वेद) आयु को बढ़ानेवाली प्राचीनतम चिकित्सा- प्रणाली है। आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद भी कहा जाता है। आयुर्वेद में विज्ञान, कला एवं दर्शन का अभूतपूर्व मिश्रण है। आयुर्वेद के विषय में कहा गया है ।


हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।


मानं च तच्च यत्रोक्तयायुर्वेदः स उच्यते॥


-चरकसंहिता, सूत्रस्थान, 1.41


अर्थात्, जिस ग्रन्थ में हित आयु, सुख आयु एवं दुःख आयु का वर्णन है, उसे आयुर्वेद कहते हैं।



किसी ने लिखा है कि आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः अर्थात् जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है, उसे आयुर्वेद कहते हैं।


इस शास्त्र के आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं, जिन्होंने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ दिया था। अश्विनीकुमारों से यह विद्या इन्द्र ने ली थी। इन्द्र ने धनवन्तरि को बतायी। काशी के राजा दिवोदास, धनवन्तरि के अवतार माने जाते हैं। सुश्रुत ने उनसे आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भरद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं।


आयुर्वेद को आगे बढ़ानेवाले आचार्य, आयुर्वेदाचार्य मुख्य रूप से अश्विनीकुमार, धनवन्तरि, दिवोदास, नकुल, सहदेव, चर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जाबालि, अगस्त, अत्रि (इनके छः शिष्य अग्निवेश, भेल, जातुकर्ण, पराशर, क्षीरपाणि, हरीत), सुश्रुत और चरक माने जाते हैं। आगे चलकर समय बदला, युग बदला एवं आयुर्वेद लुप्त होने लगा। आजकल फिर आयुर्वेद का पुनरुत्थान होना शुरू हुआ है।


आयुर्वेद के दो मुख्य उद्देश्य बताए गए हैं :


1. स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षाः इसमें अपने शरीर एवं प्रकृति के अनुकूल ऋतु अनुसार, समय अनुसार सुविधानुसार उचित अनुपात में आहार लेना। अपनी दिनचर्या सही रखना, समय से शौच, स्नान, शयन, जागरण, व्यायाम करना। अपने शरीर, मन, बुद्धि की शुद्धि करना। सात्त्विक, पाचक, शाकाहारी भोजन करना आदि नियमों से सभी के स्वास्थ्य की रक्षा करना ही आयुर्वेद का उद्देश्य है।


2. रोगी के रोग को दूर करके उसे स्वस्थ करना : आयुर्वेद में रोग के कारणों को जानकर रोगी की अवस्था, ऋतु, रोग की व्यापकता देखकर दवा दी जाती है एवं आयुर्वेद में परहेज की बहुत आवश्यकता होती है। आयुर्वेद रोग को जड़ से नष्ट करके शरीर को यथावत् करता है।


आयुर्वेद में त्रिदोष (वात, कफ, पित्त) संतुलन


आयुर्वेद में वात, कफ, पित्त का 'त्रिदोष सिद्धान्त होता है। जब तक इन त्रिदोषों में उचित अनुपात रहता है, तब तक व्यक्ति स्वस्थ रहता है। अनुपात बिगड़ने से व्यक्ति रोगग्रस्त होता है।


गठिया वात, पैर फूलना भी विशेषता है। प्राण वात, समान वात, उवास वात, अपान वात, व्यान वात आदि वात के प्रकार होते हैं।


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