आयुर्वेद की आचार्य परम्परा और ग्रंथ-परम्परा

भारतवर्ष की प्राचीन 18 विद्याएँ हैं- छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थशास्त्र


अंगानि वेदाश्चत्वारो मीमांसान्यायविस्तरः।


पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥


आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः।


अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या हृष्टादशैव ताः ॥


-विष्णुमहापुराण, 3.6.27-28;


भविष्यमहापुराण, ब्राह्मपर्व, अ. 1


आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद- ये चारों उपवेद भी ब्रह्मा के 4 मुखों से ही उत्पन्न हुए हैं


आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः।।


स्थापत्यं चासृजद्वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः॥


-भागवतमहापुराण, 3.12.38



आयुर्वेद की आचार्य-परम्परा और ग्रन्थ


ब्रह्मा ने संसार के कल्याणार्थ सर्वप्रथम प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया। प्रजापति ने यह ज्ञान दोनों अश्विनीकुमारों को, अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को, इन्द्र ने भरद्वाज को, भरद्वाज ने अपने शिष्य पुनर्वसु आत्रेय को और आत्रेय ने अग्निवेश, पराशर, भेल, हारीत, जातूकर्ण और क्षारपाणि- इन छः शिष्यों को यह ज्ञान दिया। तत्पश्चात् उन सभी ने आयुर्वेद में महान् दक्षता प्राप्तकर अपने नाम पर ग्रन्थों की रचना की (चरकसंहिता, सूत्रस्थान, अ. 1)।


सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने अपने नाम से ब्रह्मसंहिता' नामक एक हजार अध्याय और एक लाख श्लोकोंवाले एक ग्रन्थ की रचना की। इसके बाद आत्रेय के शिष्य अग्निवेश ने आयुर्वेद पर एक ग्रन्थ की रचना की। शेष पाँचों ने भी अपने-अपने नाम से संहिताएँ बनायीं। इनमें से अग्निवेश को छोड़ शेष सभी की संहिताएँ प्रायः लुप्त हो गयी या आततायियों ने उन्हें जला दिया। वैसे चक्रपाणिदत्त, इन्दु, उल्हण आदि के प्राचीन ग्रन्थों में भेल, जावूकर्य, पराशर, हारीत, क्षारपाणि, भोज, कश्यप, भद्रशौनक, वैतरण, निमि, कृष्णात्रेय, आलम्बायन, कराल, जीवक, भालुकि, विदेह, विश्वामित्र, करवनाद, दारुवाह, पौष्कलावत, दारुक, वृद्धकाश्यप तथा सात्विकी इत्यादि अनेक संहिताओं का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि हमारे यहाँ आयुर्वेद के ग्रन्थों का कितना बड़ा भण्डार था।


कनिष्क के राज्यकाल में आचार्य चरक ने ऋषि अग्निवेश के प्राचीन ग्रन्थ का अपने नाम से भाष्य किया। ‘चरकसंहिता' इतनी विख्यात हुई कि संसारभर के चिकित्सकों ने अपने ज्ञान के लिए इसे आधार बनाया। प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान् डॉ. हंटर ने लिखा है- '8वीं शताब्दी में संस्कृत से जो पुस्तकें अनुवादित हुईं, उन्हीं पर अरब वैद्यक की नींव पड़ी और 17वीं शताब्दी तक यूरोप के वैद्य अरबवालों के (वास्तव में हिंदुओं के) नियमों पर चलते थे। 8वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक वैद्यक की जो पुस्तकें यूरोप में बनती थीं, उनमें चरक के वाक्यों के प्रमाण दिए हुए हैं।


डॉ. रायल ने लिखा है- 'ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में थियो फ्रेस्टस (370-287 ई.पू.) ने भारतीयों से ही अपना ज्ञान प्राप्त किया था। क्लासियस ने भी भारतीय चिकित्साविज्ञान से द्रव्यों का ज्ञान प्राप्त किया था। इतना ही नहीं, ‘आधुनिक चिकित्साविज्ञान के पिता' कहे जानेवाले हिप्पोक्रेटीज़ (460-370 ई.पू.) ने भी भारतीयों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही अपने द्रव्य गुणविज्ञानशास्त्र का निर्माण किया था। विश्व की प्राचीनतम चिकित्साप्रणाली के लिए हम हिंदुओं के ऋणी हैं।' (सिविलाइजेशन ऑफ़ इण्डिया, वॉल्यूम 2, पृ. 249)।


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