आयुर्वेदसम्मत विवाह-पद्धति

महाभारत के अनुसार, नारद बोले- ‘मन से संकल्प करके, वाणी द्वार प्रतिज्ञा करके, बुद्धि द्वारा पूर्ण निश्चय के साथ, परस्पर सम्भाषणपूर्णक तथा संकल्प का जल हाथ में लेकर जो कन्यादान किया जाता है और जिसके लिए वैदिक मंत्रों का पाठ किया जाता है- यही विधि-विधान, कन्या-परिग्रह के साधक रूप से प्रसिद्ध है। परन्तु इतने से ही पाणिग्रहण की पूर्णता का निश्चय नहीं होता, उसकी पूर्ण निष्ठा तो सप्तपदी ही मानी गई है।''


हिंदू-धर्म में सोलह संस्कार मानव जीवन को सफल बनाने में माने गए है। इन सोलह संस्कारों में, विवाह भी एक संस्कार होता है। संस्कार का सरल मतलब यह है कि किसी कर्म करने के व्यापार से मन पर एक छाप (इम्प्रैशन) पड़ती है। इसी मानसिक छाप के अनुकूल आदमी की प्रवृत्ति (स्वाभाविक इच्छा) बनती है और इस प्रवृत्ति की आत्मस्वीकृति के अनुसार ही आदमी का कर्म-व्यवहार होता है।



हिंदू-विवाह पर, आज के समय में सबसे बड़ा आरोप यह लगता है कि जड़पदार्थों की तरह कन्या भी दान की पात्र क्यों, कैसे बनाई जाती है? विवाह-संस्कार से दाम्पत्य-भाव पैदा होता है जो साक्षात् मनोवैज्ञानिक भाव है। इसका एक बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। शायद छान्दोग्योपनिषद् का सूत्र है- यावद् वित्तं तावद् आत्मा, अर्थात् जहाँ तक निजी वित्त (अर्थात् योग्य साधन) होता है वहाँ तक आत्मा का फैलाव होता है। 'आत्मा' शब्द ही ‘आत्मीयता' शब्द बनता है। वित्त दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो आन्तरिक तथा दूसरा बाह्य। आदमी का अपना शरीर और उसके अंग-प्रत्यंग उसके आन्तरिक वित्त होते हैं, पत्नी, संतानें, घर के नौकर चाकर, घर के पशु, रहने का घर, खेत- खलिहान- ये सब बाह्य वित्त का रूप बनाते हैं। इन दोनों वित्तों में व्यक्ति की आत्मीयता जुड़ी रहती है। भारतीय मनीषा अनुसार, समाज में सरस सम्बन्ध, शान्ति-व्यवस्था बनाएँ रखने के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति के किसी भी वित्त को, जबर्दस्ती से, धोखे से चुराकर नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उस वित्त से उसकी आत्मीयता जुड़ी रहती है। जबतक वह अपने वित्त का त्याग न करे, उसे लेना सामाजिक अपराध है।


श्वेतकेतु ऋषि से पहले समाज में विवाह की पद्धति नहीं थी। महाभारत के अनुसार श्वेतकेतु की माँ का हाथ किसी ऋषि ने पकड़ लिया था, इससे ऋषि श्वेतकेतु बड़े दुःखी हुए और तब उन्होंने विवाह-पद्धति की समाज में स्थापना की।


पिता की पुत्री उसकी बाह्य वित्त है। केवल पिता की आत्मीयता पुत्री पर ही नहीं रहती, पुत्री की आत्मीयता पिता के प्रति भी रहती है। इस आत्मीयता को जब तक भंग नहीं किया जायेगा, तो उस पुत्री को नयी सृष्टि का साधन बनाना न केवल सामाजिक दायित्व है, वरन् आध्यात्मिक दृष्टि से भी हितकर है, दोनों का कल्याण इसमें शामिल है। समाज में सृष्टि जारी रखने के काम को, पितृ-ऋण चुकाना माना गया है।


जीवनविज्ञान, जिसे साइंसी भाषा में ‘जिनेटिक्स' कहते हैं, के श्रद्धासूत्र को ‘क्रोमोसोम' कहते हैं, उसे वैदिक शब्दावली में श्रद्धासूत्र' कहते हैं। इन श्रद्धासूत्रों का सम्बन्ध आधार, सात पीढ़ियों तक रहता है। इसी मान्यता के आधार पर सात पीढ़ियों में परस्पर विवाह-सम्बन्ध नहीं करने का विधान बनाया गया है। जहाँ इस बन्धन की अनदेखी की जाती है, वहाँ पैदा होनेवाली सन्तति की शारीरिक तथा मानसिक बनावट में कई दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसका उदाहरण मुस्लिम सप्रदाय की विवाह-पद्धति में मिलता है। इस समाज में दो सगे भाइयों की सन्तानों में परस्पर वैवाहिक दाम्पत्य संबंध स्थापित हो जाते हैं। ये तमाम दोष उत्पन्न हो जाना आयुर्वेद की दृष्टि से स्वाभाविक माना गया है।


आगे और----