*आयुर्वेदिक दवाइयों पर न लगे जीएसटी': देवेन्द्र त्रिगुण

आपकी इतनी ख्याति है, उसके बारे में कुछ बताइये।


ख्याति पिताजी की वजह से हुईपिताजी 1936-40 - चार वर्ष तक आयुर्वेद पढे, फिर वे 1940 से 1950 तक आजादी की लड़ाई के लिए पंजाब चले गए और 1950 में वे फिर दिल्ली आए और आयुर्वेदिक चिकित्सा आरम्भ कीफिर 2013 तक 96 वर्ष की आयु तक 73 वर्ष चिकित्सा की। उनका सबसे बड़ा ध्येय था कि आयुर्वेद को व्यवसाय बनाया जाए। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी किसी से फीस नहीं ली। यही उन्होंने मुझे सिखाया कभी किसी से फीस नहीं लेना। और हम उसी ध्येय से आयुर्वेद को देश और विदेश में लेकर गये। आपके दिमाग में यह नहीं होता कि आपको किसी की जेब से पैसा निकालना है, तो आपको सफलता मिलती है। चाहे वह गरीब हो या अमीर- चिकित्सा की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। और हमने ऐसा किया भी। हमने शुद्ध आयुर्वेद से लोगों की चिकित्सा की।



आयुर्वेद के माध्यम से हम जो कुछ भी कर पाए, किया। उसमें हमें सफलता भी मिली; क्योंकि यह अपने देश की चिकित्सा-पद्धति है, इसमें यह भी होता हैजिस स्थान पर व्यक्ति पैदा होता है, वहाँ का वातावरण, जलवायु और जड़ी-बूटियाँ उसी प्रकार से लाफ करती हैं। जब दिल्ली के आस-पास जंगल थे हम लोग रोज वहाँ से ताजी जड़ी-बूटियाँ लाते थे, धीरे-धीरे जंगल खत्म हो गए। शुद्ध औषधियाँ बनाना इतना आसान नहीं होता, उसमें बहुत समय लगता है। दवाइयों की गुणवत्ता अच्छी हो तो आयुर्वेद से बीमारियों का निदान मिलता है और चिकित्सा अच्छी हो पाती है। यह परम्परा हमारे यहाँ चार पीढ़ियों से चली आ रही है।


सन् 1978-79 में एक बार महर्षि महेश योगी ने पिता जी को बुलाया (मैं भी साथ गया था) और कहा कि हम आयुर्वेद को योग के साथ जोड़ना चाहते हैं, आप हमारे साथ जुड़े ताकि पूरे विश्व में आयुर्वेद को ले जाया जाए। पिता जी ने कहा था मैं आयुर्वेद की दृष्टि से आपके साथ जुड़ेंगा। तकरीबन 1979 से लेकर 2000 तक पूरे विश्व में हमने साल में 3 से 5 बार अनेक देशों का भ्रमण किया हमने अनेक बड़े- बड़े वैद्यों, चिकित्सकों व अध्यापकों का चयन किया और उनको साथ लेकर गये, जिन्होंने अमेरिका, यूरोप में जाकर व्याख्यान दिए। उसका प्रभाव यह हुआ कि आज आयुर्वेद को विश्व में मान्यता मिल रही है। डॉ. दीपक चोपड़ा भी उसी की एक कड़ी थे। 1985-86 में हम लोग वाशिंगटन में जब महर्षि योगी जी से मिले, उसके बाद उन्होंने विदेशों में आयुर्वेद और योग का बहुत प्रचार किया। जब हम लोग वहाँ गए थे, वहाँ के लोग आयुर्वेद को जानते भी नहीं थे। आज स्थिति यह है जो भी व्यक्ति वहाँ से आता है, आयुर्वेद से चिकित्सा कराना चाहता है।


सन् 1982-83 में एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक सर्वेक्षण हुआ था, पाया गया कि यहाँ जितने भी एनआरआई आते हैं, वे तीन चीजें लेने आते हैं- दुआ, दुल्हन और दवा। वे लोग अधिकतर आयुर्वेदिक दवाएँ लेने आते थे। जब हम लोग शुरू-शुरू में अमेरिका जाते थे, तब वहाँ पर एक वैद्य की फीस 250 डॉलर होती थी और 500-600 रुपये की वह दवाई देता था। जो वहाँ के लोग थे, उनके लिए तो वह ठीक था परन्तु भारतीयों को लगता था ये तो आयुर्वेदिक औषधियाँ हैं, ये तो भारत में सस्ती हैं और उस समय 500 रुपये का तो भारत आने-जाने का टिकट आ जाता था। और वे लोग सोचते थे कि हम भारत जाएँगे, तब दवाई लेकर आ जाएंगे। इस प्रकार आयुर्वेद का प्रचार हुआ।


आज हजारों डॉक्टर अमेरिका और यूरोप में आयुर्वेद से चिकित्सा कर रहे हैं। वहाँ पर हमारे यहाँ के आयुर्वेदिक चिकित्सक इलाज नहीं कर सकते तो वहाँ के चिकित्सकों को हमने आयुर्वेदिक चिकित्सा सिखाई, इस वजह से वहाँ के डॉक्टर आयुर्वेदिक पद्धति से वहाँ इलाज कर रहे हैं। कई देशों से हमारा अनुबंध भी हुआ है जिनमें जर्मनी, स्वीट्जरलैण्ड, वेस्टइंडीज आदि प्रमुख हैं। कुछ स्थानों पर विश्वविद्यालय भी खुले हैं। आयुष विभाग बनने से यह सब संभव हो सका है। इस विभाग को और अधिकार मिलने चाहिए। भारत में चिकित्सा पर्यटन' आयुर्वेद और योग के कारण की संभव हो सका है।


सन् 1980-81 में लोग योग और आयुर्वेद के लिए ही भारत आते थे। एलोपैथी चिकित्सा के लिए तो लोग इसलिए आते हैं, क्योंकि वह यहाँ सस्ता है। लेकिन बहुत-से लोग आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए ही आते हैं। अभी पिछले 7-8 साल पहले पाकिस्तान से एक प्रतिनिधिमण्डल आया था जिसमें अपोलो अस्पताल में एक बच्चे का लिवर-प्रत्यारोपण हुआ, जिसका मीडिया ने बहुत प्रचार किया जबकि उस प्रतिनिधिमंडल में बहुत-से लोग आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए आए थे, लेकिन उनका कोई प्रचार नहीं हुआ। मीडिया के प्रचार से लगता है कि एलोपैथी के इलाज के लिए ही लोग आते हैं।


आम आदमी को लगता है आयुर्वेदिक चिकित्सा महंगी है। दवाइयों की कमी है या चिकित्सकों की?


आयुर्वेद की जो औषधियाँ पिछले कुछ वर्षों में महंगी हुई हैं, इसमें कुछ जड़ी-बूटियों का अभाव तो है, परन्तु हर्बल दवाइयाँ आज भी आम आदमी के लिए 30 से 40 रुपये रोज के हिसाब से उपलब्ध हैं। कुछ महंगी दवाइयाँ सौ में से 2-4 मरीजों के लिए ही उपयोग में आती हैं। 95 प्रतिशत मरीजों को हर्बल दवाइयाँ ही दी जाती हैं। और फिर यह कॉस्ट इफैक्टिव है; क्योंकि इससे कोई साइड इफेक्ट नहीं होता जबकि एलोपैथी से अनेक प्रकार के साइड इफैक्ट होते हैं। कोई साइड इफेक्ट नहीं होगा तो मरीज़ जल्दी ठीक हो जाता है। इसलिए यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि आयुर्वेदिक दवाइयाँ महंगी हैं। हाँ, आयुर्वेदिक चिकित्सकों का अभाव तो है; क्योंकि मरीज जल्दी परिणाम चाहता है तो अनेक आयुर्वेदिक चिकित्सक भी एलोपैथी दवाईयों का प्रयोग करते हैं।


जड़ी-बूटियों की उपलब्धता आज भी उतनी ही है जितनी पहले होती थी?


जड़ी-बूटियों का अभाव होने के कारण ये कुछ महंगी भी हो गई हैं। और कुछ की उपलब्धता ही नहीं है। जैसे- केसर, कस्तूरी, मृग-सींग, प्रवाल, आदि। इनमें से कुछ को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। पर उनका सरकार चाहे तो हल निकाल सकती है। मृग सींग जो जंगलों में मृग अपने आप छोड़ जाता है, उनको सरकार अपनी प्रयोगशालाओं में जलाकर हमें दे दे। कस्तूरी का एक प्रयोग हुआ था। सरकार का एक फार्म हाउस है जिसमें कुछ हिरण पाल रखे हैं, उसको बिना मारे कस्तूरी निकाली जा चुकी है। उसी तरह प्रवाल को समुद्र अपने आप बाहर फेंक देता है। इन सब चीजों को सरकार अपने स्तर पर चिकित्सकों को उपलब्ध करा सकती है। हम लोगों ने कई बार इस ओर ध्यान भी दिलाया है, परन्तु कोई कार्य नहीं हो रहा है।


यहाँ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि आयुष विभाग जो बना है, वह श्री नरसिंहराव जी के प्रधानमंत्रित्व काल में उन्हीं के प्रयासों से बना है। उनकी आयुष में आगाध श्रद्धा थी। उस समय अटल विहारी वाजपेयी जी और मुरली मनोहर जोशी जी ने भी इसके लिए विपक्ष में होते हुए भी इस विभाग को बनाने के लिए बहुत प्रयास किए। जब अटल जी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने इसे पोषित किया, इस विभाग के लिए बजट भी बनाया। ऑल इण्डिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद और मेडिकल प्लांट बोर्ड भी उन्होंने ही बनाया। विगत 11 वर्षों से हम प्रधानमंत्री निवास पर ही धन्वन्तरि-जयन्ती मना रहे हैं। और यह भी चाहेंगे कि नरेन्द्र मोदी जी भी धन्वन्तरि-जयन्ती अपने निवास पर ही मनायें।


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