दादी माँ का बटुआ

धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम्, अर्थात् मनुष्य के चारों पुरुषार्थ के लिए स्वास्थ्य का उत्तम होना आवश्यक है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन- मनुष्य ही नहीं अपितु प्राणियों के लिए नैसर्गिक गुणधर्म है। नैसर्गिक रूप से जीवन जीनेवाले वन्य प्राणी एवं पक्षी अपने-अपने आयु का जीवन बिना बीमार हुए आनन्द के साथ व्यातीत करते हैं, उन्हें किसी पद्धति के उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती, फिर मानव अपने स्वास्थ्य को लेकर क्यों परेशान रहता है। जो मानव अपनी वासनाओं का शिकार बनकर अपनी विवेकशीलता की अवहेलना करता है, उसका स्वास्थ्य बिगड़ना अवश्यम्भावी है। इसी कारण उसे उपचार की आवष्यकता पड़ती है। दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक प्रबल हो रही भोगवादी प्रवृत्ति तथा उसकी पूर्ति के लिए अपनाई जा रही अनियमित जीवनशैली मानव को बिना उपचार के जीना असम्भव बना रही है। उपचार के क्षेत्र में नित्य नूतन आविष्कार हो रहे हैं। शल्यक्रिया के क्षेत्र में वैज्ञानिक उपलब्धियाँ लोगों को विस्मित कर रही हैं। इसके बावजूद रोग एवं रोगियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। विगत वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जेनेवा में आयोजित विश्व स्वास्थ्य गोष्ठी में घोषणा की गई थी कि 2020 तक सभी को स्वास्थ्य प्राप्त होगा। विश्व की तत्कालीन जनसंख्या के आधार पर 3000 की आबादी पर एक दक्ष चिकित्सक की बात का उल्लेख भी किया गया था, जबकि भारत जैसे विकासशील देश में 3000 की आबादी पर एक भी दक्ष चिकित्सक उपलब्ध नहीं है। इस वस्तुस्थिति का निष्कर्ष यह है कि केवल उपचारों से न रोगों का उन्मूलन सम्भव हैऔर न ही स्वास्थ्य-लाभ। इस अनुभूति के कारण विश्वभर के संवेदनशील विचारक चिन्तित हैं।



उपयुक्त तथ्य आजीवन स्वास्थ्य लाभ की खोज के लिए प्रेरित कर रहा है। इस लक्ष्य की सिद्धि मानवमात्र की आवश्यकता है। भारत का पुरातन शास्त्र आयुर्वेदविज्ञान इस अनिवार्य शोध का आधार बन सकता है। इस शास्त्र ने मानव को केवल शरीरमात्र नहीं माना अपितु


शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा की एकात्म इकाई के रूप में अनुभव किया है। मानव व्यक्तित्व के इन तत्त्वों में परस्पर पूरकता एवं सामञ्जस्य बनाए रखना ही आजीवन स्वास्थ्य का मर्म है।


मानव आजीवन स्वास्थ्य लाभ की लम्बी दौड़ में सम्मिलित होने की मनःस्थिति में आ रहा है। लेकिन वह छोटी-छोटी बीमारियों के उपचार के अभाव के कारण ही परेशान है। ऐसे में ग्रामवासियों को प्रारम्भ में ही उनकी साधारण बीमारियों का निवारण करना आवश्यक है। अतः दीनदयाल शोध संस्थान, आरोग्यधाम चित्रकूट में ‘दादी माँ बटुआ' के नाम से ग्रामीण अंचल के लिए सरल रोगोपचार पद्धति अपनाई गई जो चित्रकूट रसशाला में निर्मित काष्ठऔषधियों का एक लघु संग्रह है। सभी प्रकार के साधारण रोगों के निवारण में ये औषधियाँ लाभकारी हैं। इनका गलती हुआ प्रयोग भी किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाता।।


लोगों की साधारण बीमारियाँ दूर करने लिये आबादी के समझदार एवं सेवाभावी प्रौढ़ व्यक्ति को दादी माँ का बटुआ सौंपकर उन्हें उसका उपयोग सिखाया जाता है। इससे सभी सामान्य रोगों का निवारण हो रहा है। दादी माँ के बटुए में निम्नलिखित ओषधियाँ रहती हैं :


आगे और--