गजायुर्वेद, अस्वायुर्वेद एवं गवायुर्वेद

आयुर्वेद भारतीय ऋषिचिन्तन का मानवता को अनूठा अवदान है। न केवल मानव, बल्कि प्राणीमात्र के उपचार के लिए यहाँ अनेक विधियों का विकास हुआ है और निरीह को भी उपचार-लाभ देकर भला-चंगा किया तथा उसका उचित उपयोग किया। चूंकि प्रकृतिस्थ स्थावर और जंगम पर मानव की निर्भरता रही तथा उनसे बहुत कुछ सीखने और प्राप्त करने को मिला, ऐसे में प्राणियों के स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखा गया। यदि युद्ध के लिए हाथी, अश्व, ऊँट, खच्चर आदि की और दूध-दही के लिए गाय-भैंस आदि की ज़रूरत रही तो उनके रुग्ण होने पर निदान और उपचार की विधियों को भी खोजा गया और उनके ज्ञाताओं को प्रश्रय और सम्मान दिया गया। 


गजायुर्वेद, अश्वायुर्वेद और गवायुर्वेद के नाम से जो ग्रन्थ, पाठ या पुराणादि में उद्धरण मिलते हैं, वे सिद्ध करते हैं कि इन विषयों पर विशेष ज्ञानशाखाएँ व्यवहार में थीं और उनका उपयोग ही नहीं होता बल्कि उन पर निरन्तर अनुसन्धान भी होता रहता था। इन आयुर्वेदों के विद्वानों को समाज और राज्य- दोनों की ही ओर से सम्मान भी प्राप्त था। वीरमित्रोदय में मित्र मिश्र ने इन विषयों पर यत्किंचित् विमर्श किया है और जो उद्धरण दिए गए हैं, वे



सिद्ध करते हैं कि इन पर अनेक विद्वानों के स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलते थे और उनके पठनपाठन और प्रयोग की परम्पराएँ प्रचलन में थीं। विष्णुधर्मोत्तरपुराण, अग्निपुराण और गरुडपुराण के उद्धरण भी इस मत की पुष्टि करते हैं। सभी व्याधियाँ और उनके उपचार आयुर्वेद के सुविचारित वात, कफ और पित्त के सिद्धांत पर ही आधारित मिलते हैं। जो भारतीय चिकित्सा-पद्धति की एक अनोखी अवधारणा है।


अग्निपुराण में कहा गया है कि शालिहोत्र ने सुश्रुत को हुयायुर्वेद कहा और पालकाप्य ने अंगराज के लिए गजायुर्वेद का कथन किया था- शालिहोत्रः सुश्रुताय हयायुर्वेदमुक्तवान्। पालकाप्योउंगराजाय गजायुर्वेदमब्रवीत्॥ (अग्निपुराण 292.44) इसी प्रकार ऊष्ट्रायुर्वेद, मत्स्यायुर्वेद की मान्यता रही है। सोमेश्वर का मृगपक्षीशास्त्र और श्येनशास्त्र; राजा शेरफोजी कृत गजशास्त्रादि ग्रन्थ इस क्रम में उल्लेखनीय है। इस लेख में हम गजायुर्वेद, अश्वायुर्वेद और गवायुर्वेद की चर्चा करेंगे।


गजायुर्वेद


हाथी, जिसे संस्कृत में गज, नाग, अर्व, कुंजर, हस्ति, करि आदि भी कहा जाता है, प्राचीन काल में युद्ध के लिए महत्त्वपूर्ण जानवर माना जाता था और यह शत्रुओं के सामने सेना का बड़ा साहस माना जाता था। आचार्य चाणक्य ने हाथी के पालन और उपयोग को लेकर जो सूचनाएँ दी हैं, वे


गवायुर्वेद


मेगास्थनीज आदि के विवरण से पर्याप्त मेल खाती हैं। बार्हस्पत्यसंहिता में कहा गया है- रिपुविजयः फलमेषां नागानां नागलक्षणोक्तानाम्। संचरण साहस निरतस्य भवति नित्यं नरेन्द्रस्य। सांग्रामिका द्विपा राजन सम्यग्लक्षण लक्षिताः।


मुनि पालकाप्य को प्रथमतः अंगनरेश के प्रति गजशास्त्र तैयार करने का श्रेय है। और उनके नाम से अनेक छोटे-बड़े हस्तिशास्त्र मिलते हैं। पालकाप्य ने हाथी को प्रत्यक्ष देवता कहा है और नागजात्य स्वीकारा है : प्रत्यक्षदेवता नागा देवजात्या यतस्ततः। स्वामिनश्च भवन्त्येते तस्मात् प्रोक्तास्तु भूमिदाः॥ (वीरमित्रोदय, लक्षणप्रकाश, पृ. 321)। पराशरसंहिता में चार प्रकार के हाथी बताए गए हैं : भद्रा, मन्दा, मृगा और मिश्रा। बल, गति, सत्व, छाया आदि के आधार पर हाथियों की परीक्षा की जाती थी।


पालकाप्य के काल तक हाथियों की विशेष चिकित्सा पर ध्यान दिया जाता था और गजवैद्य राज्याश्रय प्राप्त होते थे।


गजवैद्य भिषक्, विनीत, मेधावी, ग्रन्थों के अर्थों को जाननेवाले, राजा जैसा प्रियभाषी, महाभोग को ग्रहण करनेवाले, वाग्मी, प्रगल्भ, शान्तात्मा, बुद्धिमान, धार्मिक और पवित्रमन सहित सेना के इच्छुक, मधुर व कुलीन होते थे। (वही, पृ. 400)।


आगे और---