किसान-आंदोलन: क्या हो स्थाई समाधान?

देश का किसान, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अपनी उपज " की लाभकारी कीमत प्राप्त करने और ऋण-माफी के लिए, इन दिनों आंदोलित है। मध्यप्रदेश में हुए किसान-आंदोलन के हिंसक हो जाने के दौरान गोलीबारी से पांच किसानों की दुखःद मृत्यु और कर्ज में आकंठ डूबे किसानों की आत्म हत्याओं के मामलों से स्थिति और पेचिदा हो गई है। पूरे देश की संवेदनाएं अन्नदाता किसान के साथ हैं। किसान आन्दोलन के संदर्भ में कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से सामने आते हैं


1. देश के किसानों की यह दुरावस्था क्या दो-तीन वर्ष के दौरान हुई या इसके कुछ राजनीतिक-ऐतिहासिक कारण हैं?


2. क्या ऋण-माफी किसानों की समस्या का कोई स्थाई समाधान है?


3. स्वामीनाथन आयोग ने 4 अक्तूबर, 2006 को तत्कालीन संप्रग सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में गाँव और किसानों को उनकी बदहाली से उबारने के लिए कौन-कौन सी सिफारिशें की थीं और सरकार ने उन पर क्या कार्रवाई की।



विरासत में मिली दुर्दशा


देश के गाँवों और किसानों की दुर्दशा के कारणों को जानने-समझने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की पुस्तक ‘भारत की भयावह आर्थिक स्थिति : कारण और निदान' की, स्वयं उनके द्वारा लिखी गई प्रस्तावना के कुछ अंशों का उल्लेख करूंगा : * स्वतंत्र भारत को एक ओर विरासत में चार समस्याएँ मिली हैं जिनका परस्पर संबंध है। ये समस्याएँ हैं : 1. गरीबी, 2. बेरोजगारी और कम बेरोजगारी, 3. वैयक्तिक आय में भारी असमानताएँ और 4. कठिन काम न करने की प्रवृत्ति। ये सभी समस्याएँ जीवन के गलत दर्शन से उत्पन्न हुई हैं। लम्बे अर्से तक भारत पर विदेशी अथवा अल्पसंख्यकों का शासन रहा है। स्वाधीनताप्राप्ति से भी इन समस्याओं के निराकरण में कोई सहायता नहीं मिल सकी। इसके विपरीत इन समस्याओं का विकराल रूप होता गया। एक पाँचवीं समस्या भी बड़ी है अर्थात् राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में उच्च पदाधिकारियों में भी प्रत्येक प्रकार का संभाव्य भ्रष्टाचार फैला हुआ है।


राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कृषि को सर्वप्रथम प्राथमिकता देने के लिए कहा था, जिसके साथ-साथ कुटीर-उद्योग अथवा हस्तकलाओं को भी शामिल किया जाना था और सबसे बाद में भारी उद्योगों को हाथ में लेना था। लेकिन गाँधी जी के विचारों को उनके उत्तराधिकारी ने अस्वीकार कर दिया और उन्होंने प्रतिष्ठा के लिए ऐसी नीतियों को अपनाया जो आंतरिक स्थितियों से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थी।


भारत की आर्थिक उन्नति की मुख्य बाधा यह रही है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व, विशेषकर हमारे सभी आयोजक और अर्थशास्त्री शहरी विद्वान रहे हैं, और उनका मार्क्स के उन सिद्धान्तों के प्रति आकर्षण रहा है जो हमारे देश की वर्तमान आर्थिक वास्तविकताओं की दृष्टि में नितांत बेकार हैं।


'आज भारतीय अर्थव्यवस्था का आधारभूत तथ्य यह है कि यहाँ ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग है जिसकी सूक्ष्म दृष्टि हैऔर वह सशक्त है। यही वर्ग गरीबों की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकताओं की व्यवस्था से बड़े-बड़े वास्तविक संसाधन विधिपूर्वक हटाता रहता है ताकि सम्पन्न वर्ग के लोगों के लिए आधुनिक सुख-सुविधाएँ जुटती रहें, उनका अनुकरण किया जा सके और उन्हें बराबर विस्तार दिया जा सके।


'वातानुकूलित संयंत्रों, सिंथेटिक फाइबर फैक्ट्रियों, विशाल होटलों, गगनचुंबी अट्टालिकाओं, घरेलू अनगिनत सामान और इसी प्रकार की अन्य सामग्री के लिए अत्यधिक आर्थिक संसाधनों का उपयोग करना उन गांवों के लिए कोई अर्थ नहीं रखता जहाँ वर्ष के अधिकांश समय में कोई काम नहीं है। इन सभी वस्तुओं का उन दो लाख से भी अधिक व्यक्तियों के लिए कोई मूल्य नहीं है जो गाँवों में रहते हैं और जिन्हें स्वच्छ पीने का पानी नहीं मिल पाता अथवा लंबी-लंबी यात्राएँ करने के बाद भी उन्हें पानी नहीं मिल पाता है। इनका महत्त्व उन गावों के लोगों के लिए भी नहीं है जिनके बच्चे सदा अधपेट भूखे सो जाते हैं।


चौधरी चरण सिंह ने स्पष्ट रूप से लिखा, 'इन सबके लिए कौन उत्तरदायी है? उत्तर स्पष्ट है : राजनीतिक नेतृत्व, जिसे उन निहित वास्तविक समस्याओं की कोई समझ नहीं है, जिन्हें उन झुग्गी-झोपड़ियों में रहनेवालों के साथ सौहार्द नहीं है, जो इस देश के वासी हैं। देश के नेताओं ने हमारी समस्याओं के निराकरण करने के लिए विदेशों के सिद्धान्तों को लागू करना चाहा, जबकि हमारी परिस्थितियाँ भिन्न हैं।।


जिस किसान ने खाद्यान्न-संकट से उबारा.उसे बरबाद करने की नीतियां


यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि देश के किसानों ने अपनी हर प्रकार की ना ने अपनी हर प्रकार की उपेक्षा के बावजूद देश को, खाद्यान्न-संकट से उबारकर, अमेरिका के चंगुल में फँसने से बचा लिया था। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि देश के नियन्ताओं ने इन किसानों को पुरस्कृत करने के बजाए, उन पर आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर ऐसी नीतियाँ लाद दीं जिन्होंने इन किसानों की कमर ही तोड़ दी। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आड़ में अमेरिका द्वारा लादी गई इन्हीं नीतियों ने किसानों को आत्महत्या के कगार पर ला खड़ा किया। प्रकारांतर से यहाँ यह कहना असंगत नहीं होगा कि एक प्रकार से अमरीका ने भारत के उन किसानों को ही बरबाद करने का काम किया जिन्होंने अपने देश को खाद्यान्नसंकट से उबारकर भारत की सम्प्रभुता रक्षा की थी, और भारत सरकार इन किसानों की रक्षा करने में विफल रही। यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि भारत में किसानों आत्महत्याओं की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ1991 में तत्कालीन वित्तमंत्री व प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व लागू की गई उदारीकरण की नीतियों देन हैं।


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