रसोईघर में हर मर्ज का इलाज

रोग मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। बीमारियाँ व्यक्ति को अन्दर से खोखला बना देती हैं। आज के बदलते खान-पान, विकृत जीवनशैली तथा दूषित वातावरण के कारण प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रोग से ग्रस्त है। कोई छोटी तो कोई बड़ी बीमारी की गिरफ्त में है। रोग मंद हो या तीव्र- शरीर की शक्तियों के उत्पादन को रोकता है और शरीर की एकत्रित ऊर्जा को धीरे-धीरे नष्ट करता है। कोई भी रोग शुरू से बड़ा नहीं होता, समय रहते उपचार न होने पर वह असाध्य हो जाता है।



हमारी भारतीय चिकित्सा-पद्धति अत्यन्त प्राचीन होने के साथ आज कारगर है; क्योंकि इस पद्धति मे रोग नहीं बल्कि रोग के कारणों को समाप्त करने के चिकित्सा की जाती है। पहले छोटीछोटी बीमारियों के लिए लोग डॉक्टरों के पास नहीं भागते थे। दादी माँ के नुस्खे हुआ करते थे। वर्तमान समय की प्राकृतिक चिकित्सा उनके अनुभव के सामने तुच्छ थी। उनके हाथ में तो जैसे जादू था। शरीर के हर अंग की। परेशानी छूकर ही जान जाती थीं। बच्चे तो उनके स्पर्शमात्र से ही ठीक हो। जाया करते थे। बच्चों को। जुकाम हुआ, तो दो बूंद सरसों का तेल नाक में डाल दिया। पेट दर्द हुआ तो हींग का लेप पेट पर कर दिया और थोड़ी घोलकर पिला दी। तेज दर्द हुआ तो फूल के बरतन में पानीभर कर दस मिनट पेट पर घुमा दिया। फोड़े-फुसी होने पर एक तरफ कच्ची रोटी या गर्म घी-नमक का फाहा बाँधकर ठीक कर लेती थीं। ज्यादा हुआ तो नीम की छाल पत्थर पर घिसकर लगा देती थीं। इसके अतिरिक्त हंसली (कॉलर बोन) हट जाना, नाल उखड़ जाना, मोच आ जाना तो उनके हाथों से ही ठीक हो जाते थे। बच्चों की मालिस का तेल सरसों, दूब, तिल, दालचीनी, आदि न जाने क्या-क्या डालकर तैयार कर देती थीं जो बच्चों की हड्डियाँ मजबूत बनाने में सहायक होता था। जैसे कुम्हार अपने बर्तन को ठोक-पीटकर मनचाहा आकार दे देता है, वैसे ही दादी और नानी भी नवजात शिशुओं की नाक, कान, माथा, भौंह की कुछ विकृतियों को अपनी तकनीक से दूर कर मनचाहा आकार दे देती थीं। अन्य रोगों के लिए उनका दवाखाना रसोईघर ही होता था। हल्दी, चूना, अजवाइन, जीरा, मेथी, जायफल, लौंग, इलाइची, नमक, आदि से छोटी-बड़ी हर प्रकार की मर्ज ठीक कर देती थी।


परन्तु दादी माँ की परम्परा संयुक्त परिवार के साथ ही खत्म हो गयी। अब एकल परिवार में अकेली महिला के पास काम का पहले से ही बोझ होता है, उस पर यदि नौकरी भी करती है तो रसोईघर में खाना पकाने का भी समय नहीं होता। इतनी व्यस्तता के बीच मसालों में से रोगों का इलाज़ तो संभव ही नहीं। साथ ही रोगी के पास भी इतना समय नहीं कि वह कई दिन तक रोग के ठीक होने का इंतजार कर सकेऐसे में रोगी पाश्चात्य चिकित्सा-पद्धति एलोपैथी का ही सहारा लेते हैं। इससे तात्कालिक लाभ तो मिलता है पर रोग जड़ से नहीं जाता तथा दवाइयों का प्रभाव खत्म होते ही रोग फिर से प्रकट हो जाता है और शरीर पर दवाइयों का दुष्प्रभाव भी होता हैआज भी घरेलू उपचार अपनाकर रोगों से सदा के लिए छुटकारा पाया जा सकता है।


यहाँ हम अपनी रसोई में उपलब्ध मसालों और कच्चे खाद्य-पदार्थों के ओषधीय उपयोग के बारे में जानेंगे।


हल्दी- हल्दी सभी उम्र के लोगों के लिए लाभदायक होती है। हल्दी तीनों दोषोंवात, पित्त और कफ को सन्तुलित करती है। हल्दी ऐंटीबायोटिक व ऐंटीएलर्जिक भी है, इसलिए शरीर में चोट, मोच, फोड़े, फुसी, विषैले कीड़े काटने पर इसका लेप फायदेमंद होता है। शरीर में दर्द, खांसीजुकाम, सूजन इत्यादि में हल्दी मिला दूध शीघ्र ही आराम देता है। हल्दी हमारी शारीरिक ऊर्जा बढ़ाती है तथा पाचनक्रिया को मजबूत बनाती है।


लौंग- सामान्यतः लोग सौंफ, लौंग, छोटी इलाइची का प्रयोग मुखशुद्धि के लिए करते हैं। परन्तु इसमें अनगिनत रोगों जैसे- सिरदर्द, बुखार, खाँसी-जुकाम, दन्तरोग, हैजा, नासूर, कफ-विकार, गठिया एवं संधिवात आदि को दूर करने के औषधीय गुण विद्यमान हैं। लौंग का सबसे बड़ा गुण श्वेत रक्तकणों की वृद्धि और जीवनशक्ति में वृद्धि करना है।


हींग- हींग पाचक भी है और वायुनाशक भी। हींग हृदयरोग से बचाती है। आँखों के लिए भी हितकारक है। शारीरिक एवं मानसिक बल को बढ़ाती है। मानसिक रोग, हिस्टीरिया, दाद, कान दर्द, पेट दर्द, अपच, दांत दर्द, हिचकी में, मूत्र-अवरोध, वातरोग, बिच्छू के काटने में अन्य गंभीर रोगों को भी जड़ से समाप्त करने में यह कारगर है।


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