सक्षम एवं दूरदर्शी अध्यात्मविज्ञानी

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करने पर लगता है कि उत्पत्ति एवं विनाश एक सतत प्रक्रिया है। एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। परन्तु न तो वैज्ञानिकों को इस दृष्टिकोण से सहमति है, न ही समाजशास्त्रियों अथवा सामान्य लोगों को। सभी प्रजातियाँ, देश व जीवमान प्राणी मृत्यु की कल्पना से ही डरते हैं। सभी प्रसन्नतापूर्वक, निर्भय होकर, शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहते हैं। अतः अध्यात्मविज्ञानियों से केवल इतनी ही अपेक्षा नहीं कि वे सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण जीवन के साधन एवं योजनाएँ बनाएँ, बल्कि वे ऐसे उपायों की खोज भी करें जो सबके लिए सरल एवं आसानीपूर्वक उपलब्ध कराएँ जा सकें। यह कार्य सक्षम एवं दूरदर्शी नेतृत्व के अंतर्गत आता है। अतः अध्यात्मविज्ञानी ही वास्तविक रूप से ऐसे नेता हैं, जिनमें दूरदर्शिता एवं सक्षमता के गुण हैं।


दूरदर्शी अध्यात्मविज्ञानियों ने अपना समय व जीवन अपनी अन्तरात्मा को जगाकर इस सत्य को जानने में लगाया है कि केवल स्नेह तथा शांति ही सामाजिक जीवन में प्रसन्नता एवं शांति-समृद्धि ला सकते हैं। केवल वे ही, (उनके अतिरिक्त कोई नहीं), समाज की मानसिकता में परिवर्तन ला सकते तथा उन्हें आध्यात्मिकता की ओर प्रेरित कर सकते हैं ताकि वे कभी भी समाप्त न होनेवाली भौतिक इच्छाओं के जाल में फंसने से बच सकें। दूरदर्शी सक्षम नेताओं में लोगों की विचारधारा में सकारात्मक परिवर्तन लाने की क्षमता होती है। वे इसी क्षमता को प्राप्त करने के लिए सभी को प्रेरित भी कर सकते हैं।



। उपर्युक्त कार्य करने के लिए दूरदर्शी सक्षम नेताओं के सम्मुख प्रमुख चुनौती हैसामान्य विज्ञान ही कार्यशैली एवं विचारशैली, जिसके कारण समाज का प्रबुद्ध वर्ग सदा दुविधा की स्थिति में रहता है। जीवन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोणों- 1. मशीनी दृष्टिकोण, 2. तंत्र प्रणाली दृष्टिकोण, 3. बायोमेडिकल दृष्टिकोण अथवा 4. न्यूटन का दृष्टिकोण, ने वैज्ञानिकों को पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया है कि जीवन केवल ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन तथा जल के आदि परमाणुओं के मिश्रण का संयोगमात्र नहीं, बल्कि इसके अतिरिक्त भी चिन्तन का विषय है। यह केवल कुछ रासायनिक तत्त्वों के संयोग से अथवा कुछ धातुओं के भौतिक मिश्रण का संयोग से नहीं बना बल्कि यह जीवन तो उस महान् निर्माता (परमात्मा) के विचार से निर्मित हुआ हैजिसका समग्र सृष्टि में विशिष्ट स्थान है। अतः जीवन को पूर्ण सुरक्षा एवं संरक्षण की आवश्यकता है। मानव जाति को परमात्मा की ओर से ‘आत्मचिंतन तथा आत्मावलोकन' के लिए 'चिंतन' की विशेष देन है जो अन्य जीव जगत् को उपलब्ध नहीं। संभवतः परमात्मा द्वारा मानव जाति को जन्म देने का उद्देश्य ही यही है कि वह सृष्टि की परम जागृति के साथ एकरूप कर दे। जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण मानव को सिखाता है कि उसे महान् दायित्व सौंपा गया कि वह जीवन और मानवता को बचाने तथा इसके नष्ट और (विलुप्त) करने का वह स्वयं साधन न बने।


डायनासोर-जैसी अनेक प्रजातियाँ पर्यावरण-संबंधी परिवर्तन, प्राकृतिक कारणों अथवा प्रकृति के प्रकोप से विलुप्त हो चुकी हैं। परन्तु अभी तक प्रकृति के खेल में मानव जाति को विलुप्त करने का विचार नहीं आया। मानव स्वयं को ही विलुप्त करने की जल्दी में हो, यह अलग विषय है। हमने दशियों प्रकार के आणविक शस्त्रों के भण्डार पाल रखे हैं, जो इस संपूर्ण सृष्टि को अनेक बार नष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। साथ ही हथियारों की होड़ भी पूरे जोर पर लगी हुई है। यद्यपि 1970 से ही अमरीका तथा रूस आणविक तथा अन्य शस्त्रों को सीमित करने के लिए अनेक समझौतों के प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु इन दोनों महान् शक्तियों में परस्पर अविश्वास की भावना के कारण उनके अपने ही रक्षा-बजुटों में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। 1978 में अमेरिका के रक्षा-बजट में एक हजार खरब डॉलर का प्रावधान था। इस सामूहिक आणविक शस्त्रों के भंडारण के पागलपन से शस्त्र-संग्रह के लिए अधिकाधिक धन व्यय करने की वृत्ति बढ़ रही है। 1980 के दशक में यह राशि एक बिलियन डॉलर प्रतिदिन के हिसाब से बढ़कर 425 बिलियन डॉलर हो गई। 100 से अधिक देश (जिनमें अधिकांश तृतीय विश्व से संबंधित हैं,) शस्त्र खरीदने व बेचने के धंधे में संलग्न हैं (इनमें आणविक तथा पारंपरिक- दोनों ही तरह के अस्त्र हैं)। अनेक देशों के शस्त्र बेचने से प्राप्त राशि उनके देश की राष्ट्रीय आय से भी अधिक है। अमरीका में सैनिक उद्योग परिसर अब सरकार का एक अंग बन चुका है तथा पेंटागन लोगों में यह विश्वास जगाने का काम कर रहा है कि शस्त्रों का बड़ा भण्डार देश की सुरक्षा का आश्वासन है। वास्तव में सत्य इसके विपरीत है। अधिक शस्त्रास्त्रों से अधिक खतरे हैं। इसका अर्थ है कि हम स्वयं ही विलुप्तता की ओर बढ़ रहे हैं। हम जीवन-मूल्यों को खो चुके हैं। सरकारें चलानेवालों ने अपना मानसिक संतुलन त्याग दिया है। प्रतिवर्ष 15 मिलियन लोग भूख से प्राण गॅवाते हैं। 500 मिलियन कुपोषण का शिकार हैं। विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या की पहुँच स्वास्थ्य-सेवाओं तक नहीं हैं। 35 प्रतिशत मानवों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। इस भयंकर स्थिति में भी वैज्ञानिक ‘विनाश के शस्त्रास्त्र' बनाने में व्यस्त हैं। ये शस्त्रास्त्र रचनात्मक शोध-कार्य से बहुत अधिक हैं। 


अध्यात्मविज्ञानियों के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वे राष्ट्रों की विनाश की मानसिकता को रचनात्मकता की मानसिकता में बदलें। इसके लिए स्नेह-शांति-विश्वास का वातावरण बनाने की आवश्यकता है। यह केवल आत्मनिरीक्षण से ही संभव है।


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