संसार को वैदिक ऋषियों की अनमोल देन

भारतीय संस्कृति के मूलस्रोत और विश्व के प्राचीनतम साहित्यिक कीर्तिस्तम्भ वेद ज्ञान-विज्ञान के भण्डार हैं। समस्त सृष्टि का ज्ञान जिसमें प्रभासित हुआ हो, उसे वेद कहते है। ऋक्, यजुषः, साम व अथर्व- ये चार वेद हैं। प्रत्येक वेद का एक-एक उपवेद है। ऋग्वेद । का उपवेद आयुर्वेद है जिसमें जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत आयु का ज्ञान वर्णित है। चिरपुरातन आयुर्वेद सम्पूर्ण विश्व में भारत की मौलिक, प्राकृतिक व निरापद चिकित्सा-पद्धति के रूप में अनमोल धरोहर है। भारतीयों ने सम्पूर्ण मानव जाति हेतु अमृतस्य पुत्रः कहकर मनुष्य को स्वस्थ, निरोगी व दीर्घायु जीवन का स्वाभाविक अधिकार ही नहीं दिया गया, अपितु विज्ञानसम्मत आधार पर एक अनुशासित जीवनशैली की आचारसंहिता देकर सम्पूर्ण मनुजता को उसे सहज उपलब्ध करने का स्वयंसिद्ध पुरस्कार भी आयुर्वेद के रूप में दिया। सम्भवतः भारतीय मनीषा का उद्घोष शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् में जीवन का मूलमंत्र आयुर्वेद का भी परोक्ष दर्शन छुपा है, क्योंकि भारतीयों के अनुसार स्वस्थ्य और निरोगी रहकर ही जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।



शरीर से आत्मा तक की विरल यात्रा में मन भी यायावर होकर कई विकृतियाँ पैदा करता है। भारतीय ऋषि-मुनि इन तीनों सोपानों के घनिष्ठ अन्तर्संबंध से भली-भाँति परिचित थे, अतः इस संबंध को आयुर्वेद में प्रतिष्ठितकर उचित सामञ्जस्य की आहार विहार तालिका और उत्पन्न विकृतियों की निदान व्यवस्था कर आयुर्वेद को जीवन जीने की कला के रूप में विकसित किया गया।


संस्कृत-शब्द ‘आयुर्वेद' का शाब्दिक अर्थ आयुः अर्थात् दीर्घ आयु + वेद अर्थात् विद्या है। इस प्रकार आयुर्वेद भारतीय ऋषि मुनियों की अन्वेषणा है जिसे जीवन की विद्या' कहा जा सकता है। आयुर्वेद भारतीय स्वास्थ्यविज्ञान की वह शाखा है जो Preventation is better than cure पर आधारित होकर भी उत्पन्न दोषों की चिकित्सा की ऐसी व्यवस्था करती हैजिसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।


भारतीय ऋषि-मुनियों के वंशों से श्रुति परम्परा आगे बढ़ती गयी। पाँच हजार वर्ष पूर्व एकाग्रचित्त होकर इसका लेखन आरम्भ हुआ। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद का दशम मण्डल आयुर्वेद से संबंधित है। इसके दसवें मण्डल में ‘औषधिसूक्त है जिसके प्रणेता अर्थ ऋषि हैं। इसमें औषधियों के संबंध में विस्तार से वर्णन मिलता है। औषधिसूक्त के मंत्र 10.97.3 के अनुसार औषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः। अश्वा इव सजित्सवीर्वीरुधः पारयिष्ण्वः॥ अर्थात् पुष्पोंवाली, फलोंवाली, अश्वों के समान रोग पर विजय पानेवाली, रोगी को नीरोग करनेवाली, लताओंवाली, ओषधियाँ रोगी के ऊपर प्रभावशाली होती हैं। ये औषधियाँ माता के समान मानी गई हैं।


एक वैद्य रोगी मनुष्य की इन्द्रियोंनाड़ियों, रक्त और हृदय के स्पन्दन की परीक्षा करके इनके द्वारा रोगी का उपचार करता है, यह तथ्य ऋग्वेद से ज्ञात हो जाता है। ऋग्वेद (10.97.9) में पृथिवी के ओषधियों की माता के रूप में अभ्यर्थना करते हुए कहा गया है


इष्कृतिर्नाम वो माता ऽथो यूयं स्थ निष्कृतीःसीराः पततृणी: स्थन यदामयति निष्कृथ॥ अर्थात्, इन ओषधियों की माता पृथिवी 'इष्कृति' है। अतः ये ‘निष्कृति' है। ये शरीर की नस-नाड़ियों में वेद से गति करती है। और जो रोग शरीर को पीड़ित कर रहा हो, उसे बाहर निकाल देती है।


ऋग्वेद के अनुसार जो ओषधियाँ चन्द्रमा की चाँदनी में बढ़ती हैं, वे विविध प्रकार की है। परंतु उनमें जो हृदय रोग के लिए हैं, वे उत्तम हैं। ये औषधियाँ जड़ीबूटियों के रूप में पृथिवी पर सर्वत्र फैली पड़ी हैं, जिन्हें खोजकर ऋषियों ने आयुर्वेद को जन्म दिया। ऋग्वेद के औषधिसूक्त में 125 औषधियाँ निर्दिष्ट हैं जो 107 स्थानों पर पाई जाती हैं। इनमें सोम का विशेष महत्त्व है। इसमें औषधियों से रोगों का नाश करना भी समाविष्ट है, साथ ही जलचिकित्सा, वायुचिकित्सा, मानसचिकित्सा और यज्ञचिकित्सा का वर्णन भी समाविष्ट है। दशम मण्डल के उपर्युक्त विवरण के आधार पर ‘चरणव्यूह और ‘प्रस्थानभेद' में आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद माना गया है।


यजुर्वेद में यज्ञकर्म एवं उत्तम स्वास्थ्य हेतु औषधियों के उपयोग का विधान वर्णित है। शुक्लयजुर्वेद में औषधियों का प्रशस्तिगायन किया गया है और उनके द्वारा बलास, अर्श, शलीपद, हरदय व कुष्ठरोगों के निवारण का उल्लेख भी मिलता है। शुक्लयजुर्वेद का संबंध याज्ञवलक्य ऋषि से है। इसके कुछ मन्त्रों में ‘ब्रीहिधान्यो' का उपयोग यज्ञ द्वारा आदि, व्याधि और उपाधि निवारणार्थ किया जाना विवेच्य है।


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