स्वास्थ्य-रक्षा के मूलाधार

प्राचीन भारतीय संस्कृति में जीवन जीने के आधारों पर व्यापक चर्चा " हमारे ऋषियों द्वारा की गई और उन्होंने जीवन को शतायु मानकर उसके कालखण्डों में जीवन को जीने के उदात्त नियम बताए हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं। जीवन को स्वस्थ तरीके से व्यतीत करने हेतु स्वास्थ्य-रक्षा को सर्वोत्तम दर्शाकर उसमें आचार-विचार, दैनन्दिनी और खान पान के नियम भी निर्दिष्ट किए गए हैं। ये नियम ही व्यक्ति के स्वास्थ्य की दीर्घ रक्षा के मूलाधार हैं।


पथ्ये सति गर्दातस्य किमौषध निषवणै ।।


पथ्ये ऽसति गर्दातस्य किमौषध निषवणै ।।


अर्थात् आहार ठीक है तथा प्राकृतिक है तो फिर औषधि की आवश्कता ही क्या है।


भगवान् महावीर ने आहार के सम्बन्ध में बहुत सूक्ष्म तथ्य का निरूपण किया है। उनके अनुसार आहार के तीन प्रकार हैं:


1. ओज आहार : यह वह आहार है जिसे प्राणी अपने जीवन के प्रथम क्षण में माँ के गर्भ में ग्रहण करता है।


2. रोम आहार : जो मनुष्य शरीर के साढे तीन करोड़ रोम कूपों से सतत ग्रहण करता है।


3. प्रक्षेप आहारः जो प्राणवायु ऑक्सीजन के रूप में सूर्य के ताप के रूप में, मुँह से आहार के रूप में, शरीर में पहुँचाया जाता है, उसे प्रक्षेप आहार कहते हैं। महाभारत में आहार को 2 वर्गों में बाँटा गया है- 1. शाकाहार एवं 2. मांसाहार। अन्य शास्त्रों में तीन प्रकार के आहारों का उल्लेख है : 1. सात्त्विक आहार, 2. राजसिक आहार एवं 3. तामसिक आहार।



आयुर्वेद-मनीषियों का गहन चिन्तन


विनाऽपि भैषजैः व्याधिः पथ्यादेव निवर्तते।


न तु पथ्य विहिनस्य भेषजानां शतैरपि।


अर्थात् बिना पथ्य को सुधारे किसी भी रोग का निवारण नहीं हो सकता है। पथ्य को सुधारे बिना बड़े-बड़े विशेषज्ञ एवं विविध औषधियाँ भी रोगी को ठीक नहीं कर सकती हैं। यह बिन्दु चिन्तन एवं मनन करने योग्य है।


आयुर्वेद में स्वास्थ्य-रक्षा के पाँच मूलाधार बताए गए हैं: 1. आहार, 2. श्रम, 3. विश्राम, 4. मानसिक संतुलन और 5. पञ्चमहाभूतों का सेवन।


1. आहार : आयुर्वेद में तीन प्रकार के आहार का उल्लेख मिलता है: 1. शमन करनेवाला आहार, 2. कुपित करनेवाला आहार और 3. संतुलन रखनेवाला आहार। वात, पित्त और कफ- इन तीनों के असंतुलन से शरीर में रोगों का जन्म होता है। ऐसा कहा जाता है कि इन तीनों का मानवीय स्वभाव से गहरा सम्बन्ध होता है। भोजन की मात्रा व प्रकार हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। आहार का सर्वोपरि नियम यह है कि भूख लगने पर आवश्कतानुसार भूख से कम मात्रा में भोजन ग्रहण करना चाहिये।


2. श्रम : स्वस्थ रहने के लिए दैनिक जीवन में कुछ घंटे ऐसे बिताएँ जिससे सहज ही श्रम हो जाये। जो लोग स्वभाविक रूप से श्रम नहीं कर सकते, उन्हें व्यायाम, योगासन, भ्रमण द्वारा श्रमशील होना चाहिये। यह सत्य है कि जो व्यक्ति श्रम या व्यायाम करता है, वह स्वाभाविक रूप से स्वस्थ रहता है।


3. विश्राम : आहार व श्रम की तरह विश्राम भी शरीर की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। अत्यधिक परिश्रम से थके व्यक्ति में विश्राम नवजीवन का संचार करता है। रात की गहरी नींद सौ औषधियों के समान है, जो तनमन में उमंग का संचरण करती है। विश्राम के बाद श्रम और श्रम के बाद विश्राम- दोनों परस्पर पूरक है। विश्राम का अर्थ शरीर तथा मनदोनों को आराम मिलना ही पूर्ण विश्राम की अवस्था है।


4. मानसिक संतुलन : मन शरीररूपी यंत्र का संचालक है। मन में अनेक विचार विचरण करते हैं, शरीर के माध्यम से ही क्रिया आरम्भ होती है। इसीलिएहमारे शास्त्रों में चित्तशुद्धि को सर्वोपरि माना गया है। आयुर्वेद में मानसिक आहार के रूप में हमें अपनी पाँचों इन्द्रियों को शुद्ध करने की बात कही गई है। वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य ही आरोग्यता की कुञ्जी है।


 


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