भारतीय भावनाओं के गीतकार : पं. भरत व्यास

भरत व्यास भारत की धर्म, संस्कृति, साहित्य और राष्ट्रीय म्भावनाओं की फ़िल्मों को समर्पित ऐसे यशस्वी गीतकार रहे हैं जिनकी वर्तमान सिनेमाई गीतकारों में मिसाल मिलना अत्यन्त दुष्कर है। उनके द्वारा भारतीय भावनाओं में तल-अतल तक डूबकर लिखे सैकड़ों गीत आज भी उतने ही मर्मस्पर्शी हैं जितने पचास से अस्सी के दशकों में रहे। पं. भरत व्यास ने उन दशकों में अपने भावनाप्रद फ़िल्मी गीतों के लेखन में भारतीय साहित्य का जीवन्त प्रयोग कर न केवल देश, अपितु विदेशों में भी अपना एक अलग स्थान बनाया था। उन्होंने अपने प्रेरणास्पद और अनुपमेय गीतों से साहित्य में क्रांति की ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की थी कि लोग उन गीतों से अपने जीवन को प्रकाशित कर गये। 


दिनांक 06 जनवरी, सन् 1917 को राजस्थान के चूरू शहर में जन्मे भरत व्यास पर अपने माता-पिता के स्नेह का साया अधिक समय तक नहीं रहा। मातापिता की मृत्यु के बाद उनके दादा घनश्याम व्यास ने उनका लालन-पालन किया। पं. व्यास ने चूरू तथा बीकानेर एवं श्रीनाथद्वारा शिक्षा प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिये वह कलकत्ता चले गये। वहाँ अध्ययन व अन्य खर्चे में अर्थ की कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने कलकत्ता के कविसम्मेलनों में काव्य पाठ किये तथा वहीं लघु नाटकों के प्रदर्शन के रिकार्ड बनाकर अपना भरण-पोषण किया। लगातार रिकार्ड प्रदर्शन का परिश्रम रंग लाया और पं. व्यास को लोकप्रियता की सीढ़ी पर चढ़ा गया। इसी मध्य उनके कवि मन ने 'केसरिया पगड़ी' कविता लिखी। इस काव्य की प्रसिद्धि ने उनके जीवन को भारत के काव्य-जगत् में ला खड़ा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।



व्यास जी के मन में देश की संस्कृति और राष्ट्रीयता की सच्ची भावना निहित थी, अतः दिनों-दिन उनकी प्रतिभा निखरने लगी। वह अच्छे गीतकार और नाट्यकार के रूप में चर्चित होने लगे। उन्होंने अपना प्रथम नाटक 'रंगीला मारवाड़' कलकत्ता के सबसे पुराने अल्फ्रेड थियेटर नाट्य भारती के रंगमंच पर स्वयं के ही निर्देशन में प्रदर्शित किया था। दैवयोग की बात थी कि यह नाटक देशभर में प्रदर्शित किया गया और पं. व्यास की कीर्ति चतुर्दिक फैल गयी। इस दौरान उन्होंने ‘रामू-चानणा' तथा राजस्थान की महान् प्रेम गाथा ‘ढोला- मारू' की पटकथा व संवाद नाटक भी लिखे जिन पर बाद में सफल फिल्में बनी।


इस प्रकार गीत व नाट्य लेखन के साथ-साथ पं. व्यास में एक कुशल अभिनेता के गुण भी विद्यमान थे। उन्होंने बाल्यावस्था के नाटकों में 'कृष्ण' का काफी सुन्दर अभिनय किया था। चूरू शहर के पुराने निवासी आज भी इसका उल्लेख करते हैं। कलकत्ते में उन्होंने राजा मोरध्वज' नाटक में राजा मोरध्वज की भूमिका बड़े ही सुन्दर ढंग से निभायी थी,


जिसे दर्शकों ने खूब पसन्द किया था। 1939 के बाद वह बम्बई आ गए और अपनी प्रतिभा के बल पर वहीं से फ़िल्मजगत् में प्रवेश किया। दरअसल पं. व्यास फिल्मों में निर्देशन के इरादे से गये थे, मगर उनकी प्रतिभा के कारण वह गीतकार बना दिये गये। उन्होंने अपना प्रथम गीत उस समय के प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक बी.एम. व्यास (1920-2013) की फिल्म ‘दुहाई' के लिए सन् 1943 में लिखा। इसी दौरान पूर्व प्रस्तुत 'रंगीला मारवाड़ नाटक की प्रसिद्धि के कारण उनका परिचय प्रसिद्ध फिल्म-वितरक राजस्थान निवासी ताराचन्द बड़जात्या (1914-1992) से हुआ। उन्होंने पं. व्यास को अपनी फिल्म ‘चन्द्रलेखा' के गीत लिखने के लिए आमंत्रित किया और इस प्रकार पं. व्यास इस फिल्म के गीत लिखने के लिए मद्रास भिजवा दिए गये। यहाँ यह भी तथ्य संज्ञान में लाने योग्य हैकि बी.एम. व्यास ने मात्र 10 रुपये पुस्कारस्वरूप देकर उनसे उस युग में फिल्म 'माँ' के लिए गीत लिखवाये, जो उनकी (पं. व्यास की) कलम से निकला प्रथम फ़िल्मी गीत था। इसके बोल थेआँखें क्या आँखें हैं, जिसमें असुवन की धार नहीं, वो दिल पत्थर है, जिसमें माता का प्यार नहीं। ईश्वरीय कृपा थी कि यह फिल्म रातों-रात हिट हुई और शानदार गीतों के लेखन के लिए पं. व्यास सुपर हिट हो गये जो उनके महान् परिश्रमपूर्ण कार्य का एक महान् परिणाम रहा। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह लगातार अपने भावनामय गीतों की रचनाओं से देश की जनता को रसासिक्त करते रहे और सफलता के शिखर पर चढ़ते गये जिस पर पहुँचने के लिए गीतकार को अपनी फ़िल्मी जिंदगी में अन्तिम मेधा-शक्ति तक समर्पित कर देनी पड़ती है।


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