ऊर्जा का स्रोत : णमोकार मंत्र

इस जगत में दो मुख्य पथ हैं- एक जनपथ दूसरा जिनपथ। जनपथ का अनुयायी काम और अर्थ-पुरुषार्थों के अर्जन-विसर्जन में ही अपना सारा जीवन समाप्त कर देता है जबकि जिनपथ का पंथी चारों पुरुषार्थों, विशेषकर धर्म और मोक्ष पुरुषार्थों को पूरने का समुद्योग करता है। पुरुषार्थ कोई भी हो, किन्तु उसमें अर्थात् उस पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए ऊर्जा की महती आवश्यकता होती है। जिस व्यक्ति के अन्दर जितनी उर्जा होती है, वह अपने पुरुषार्थों में उतना ही विकास करता है।


संसार में ऊर्जा के विभिन्न स्रोत हैं जिनसे शारीरिक मानसिक शन्ति मिलती है, जैसे- औषधि, निदान-विधान आदि। इनसे असाध्य रोग, पीड़ा, कष्ट शान्त और शमन हो जाते हैं, किन्तु मंत्र की महिमा सर्वोपरि है। मंत्र का सीधा संबंध मन से है, मन का मंथन मंत्र है, मंत्र जीवन का रहस्य है, हित/मित/प्रिय बीजाक्षरों से मंत्र की सृष्टि होती है तथा इसमें फूटने की शक्ति विद्यमान होती है।



हमारी श्रद्धा और विश्वास मंत्र में जान डाल देता है, जिसकी ऊर्जा शारीरिक, मानसिक शक्ति के साथ आध्यात्मिक शन्ति का भी विकास करती है। मंत्र में दो चीज़ बहुलता से होती है- शब्द और ध्वनि। शब्द और अर्थ में दूरी होती है। शब्द बोलने से अर्थ की प्राप्ति नहीं होती, लेकिन ध्वनि शब्द और अर्थ की दूरी को कम कर देती है और ऊर्जा का संचार होने लगता है। जब हमारी संकल्प-शक्ति मजबूत होती है मंत्र पर दृढ़ आस्था, श्रद्धा और विश्वास की वृद्धि होती है, तब ध्वनि सूक्ष्म होकर शब्द से अर्थ तक की दूरी को समाप्त करती जाती है, तभी हमारा मंत्र से साक्षात्कार होता है। मंत्र का देवता प्रकट हो जाता है। संकल्प-शक्ति के द्वारा जिस आंतरिक ज्योति का जागरण होता है, उसी ज्योति का नाम देवता है जो हमारी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करता है। जब हमारा शब्द ज्योति में बदल जाता है, तब मंत्र चैतन्य हो जाता है।


मंत्र की साधना दो रूपों में होती है, एक कामनारूप दूसरी भावनारूप। कोई मंत्र इच्छापूर्ति के लिए जपा जाता है तथा कोई मंत्र इच्छा के अभाव के लिए जपा जाता है। प्रारम्भ के दो पुरुषार्थ कामनारूप हैं, जिसमें धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिए वैदिक संस्कृति में गायत्री मंत्र, बौद्धों में त्रिरत्न-मंत्र तथा श्रमण-संस्कृति में णमोकार महामंत्र विशिष्ट और अनाधिमिधन मंत्र माने जाते हैं, जिनकी शक्ति धर्ममय ऊर्जा का निर्माण करके मोक्ष की प्राप्ति कराती है। 


णमोकार महामंत्र श्रमण-संस्कृति मंत्र की सर्वोच्च मंत्र माना जाता है। इस युग में इसका प्रथम उल्लेख आचार्य पुष्पदन्त तथा आचार्य भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम में मिलता है। यह मंत्र कामना का अभाव करनेवाला तथा सच्चे सुख का प्रतीक है। इसमें किसी व्यक्तिविशेष को नमस्कार नहीं किया गया है अपितु परमपद में स्थित पञ्चपरमेष्ठियों के विशिष्ट गुणों को नमन किया गया है। वे पञ्चपरमेष्ठी हैं- 1. अरिहंत, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय और 5. साधु।


 1. अरिहंत- जिन्होंने चारघाती कर्मों का नाश कर दिया है, कैवल्य ज्ञानरूपी लक्ष्मी को पा लिया है तथा दिव्य ध्वनि के माध्यम से भव्य जीवों को उपदेश देते हैं, अरिहंत कहलाते है।


2. सिद्ध- जिन्होंने घाती-अघाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा के 8 विशिष्ट गुणों को प्राप्त कर लिया है, लोकाग्र में विराजमान अनन्त सुखी हैं, ज्ञानाकार शरीर में निवास करते हैं तथा पुनः संसार में वापिस नहीं आयेंगे, वे सभी सिद्ध भगवान् हैं।


3. आचार्य- जो मुनि संघ के नायक, 36 मूलगुणों के निराचार पालनकर्ता, शिक्षा दीक्षा प्रायश्चित्त अधिकारी, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।


4. उपाध्याय- पठन-पाठन ही जिनका उदेश्य होता है एवं 25 मूलगुणों का निराचार पालन करते हैं उपाध्याय हैं।


5. साधु- जो आरंभ से ही परिग्रह से रहित, ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहते हैं, 21 मूलगुणों का पालन ही जिनकी साधना है, वे साधु परमेष्ठी हैं।


पाँचों परमष्ठी आध्यात्मिकता से परिपूर्ण है अतः इस मंत्र के माध्यम से उनका स्मरण विशिष्ट ऊर्जा देता है, साथ ही मानसिक तनाव, दुःख, शोक रोग से भी मुक्त करता है। इस मंत्र के माध्यम से कई असाध्य रोग दूर हुए, सर्प बिच्छू का विष उतरा तथा इसके प्रभाव से ही वनस्पति एवं गोदूध में वृद्धि हुई, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। यदि श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का जाप किया जाए, तो यह नकारात्मक ऊर्जा नष्टकर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। एक जगह कहा भी गया है


त्वन्नाम मंत्र मनिशं मनुजाः स्मस्तः


सद्यः स्वयं विगत वंधभया भवन्ति॥


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