प्राचीन संस्कृत-ग्रंथों में विद्यमान हैं। विद्युत बैटरी के सूत्र

प्रख्यात विचारक श्री सुरेश सोनी ने अपनी पुस्तक ‘भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा' में उल्लेख किया है कि रावसाहब कृष्णाजी वझे ने 1891 में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान-संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्यसंहिता (?) के कुछ पन्ने मिले। इन पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अतः उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह देकर उसे जाँचने को कहा।


अगस्त्यसंहिता के नाम से ये श्लोक मिलते हैं :


संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।


छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभिः काष्ठापांसुभिः॥


दस्तालोष्टो निधात्वयः पारदाच्छादितस्ततः।


संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥


अर्थात्, एक मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्रपत्र (copper sheet) तथा शिखिग्रीवा (मोर के गरदन जैसा पदार्थ अर्थात् कॉपर सल्फेट) डालें। फिर उस बरतन को लकड़ी के गीले बुरादे (wet saw dust) से भर दें। उसके ऊपर पारे से आच्छादित दस्त लोष्ठ (mercury-amalgamated zinc sheet) डालें। इस प्रकार दोनों के संयोग से, अर्थात् तारों के द्वारा जोड़ने पर मित्रावरुणशक्ति की उत्पत्ति होगी।



अब थोड़ी सी हास्यास्पद स्थति उत्पन्न हुई। उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोश में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अतः वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहाँ के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके बाग में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज़ होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक अर्जी दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हँसने लगे और उन्होंने कहा, यहाँ शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपर सल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा। परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23mA धारावाली विद्युत उत्पन्न हुई।


प्रयोग सफल होने की सूचना डॉ. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गयी। इस बैटरी का प्रदर्शन 07 अगस्त, 1890 को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में विद्वानों के सामने हुआ।


उस ग्रंथ में आगे लिखा है :


अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु ।


एवं शतानां कुंभानांसंयोग-कार्यत्स्मृतः॥


अर्थात्, सौ कुंभों (इस प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गए सौ सेलों) की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (ऑक्सीजन) तथा उदान वायु (हाइड्रोजन) में परिवर्तित हो जाएगा। आगे लिखते हैं :


वायुबन्धकवस्त्रेण निबद्धो यानमस्तके।


उदानः स्वलघुत्वे बिभत्र्याकाशयानकम्॥


अर्थात्, उदान वायु (हाइड्रोजन) को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र (गुब्बारा) में रोका जाए तो वह विमानविद्या में काम आता है।


स्पष्ट है कि यह आज के विद्युत बैटरी का सूत्र ही है। साथ ही इससे प्राचीन भारत में विमानविद्या की भी पुष्टि होती है।


राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूँढ़ने में अपना जीवन लगाया, ने अगस्त्यसंहिता(!) एवं अन्य ग्रंथों में पाया कि विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती है, इस आधार पर उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे गए हैं :


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