राष्ट्रवाद-मानववाद और पत्रकारिता

राष्ट्रवाद-मानववाद और पत्रकारिता' विषय पर लिखते समय सबसे पहला प्रश्न उभरता है कि पत्रकार और पत्रकारिता क्या है और इनसे समाज की क्या अपेक्षाएँ हैं? किसी भी समाचार-पत्र के पाठक की यह अपेक्षा रहती है कि इस अखबार का पत्रकार उसे किसी भी घटना का तथ्यपरक विवरण देगा जिससे वह उस घटना के तथ्यों से अवगत हो सके। इस दृष्टि से वह महाभारत के उस संजय को आदर्श पत्रकार मानता है जिसने किसी रागद्वेष अथवा भय-लोभ या लालच के बिना, युद्धभूमि का विवरण धृतराष्ट्र को सुनाया। लेकिन आजकल मीडिया में एक वर्ग किसी घटना का तथ्यपरक विवरण देने के स्थान पर, सन्दर्भ से हटकर अथवा आधारहीन बातें जोड़कर किसी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने में लगा है, जिससे घटना का न केवल परिप्रेक्ष्य बदल जाता है वरन् इससे समाज में तनाव भी पैदा होता है। इस सन्दर्भ में 22 जून, 2017 को वल्लभगढ़ और मथुरा रेलवे स्टेशनों के बीच दिल्ली-मथुरा यात्रीगाड़ी में एक युवक की हत्या की दुर्भाग्यपूर्ण घटना का उल्लेख करना सामयिक होगा। रेलगाड़ी में सीट को लेकर हुए विवाद को किस प्रकार की रिर्पोटिंग बढ़ रही है, और इसे ही वास्तविक पत्रकारिता माना जाने लगा है। ऐसी पत्रकारिता से समाज में तनाव बढ़ रहा है। सब जानते है कि यह राष्ट्रहित में नहीं है, तो इसे कौन प्रोत्साहित कर रहा है और क्यों? 


यह भी देखने में आया है कि जो व्यक्ति या पत्रकार बातों को तथ्यपूर्ण ढंग से और सही परिप्रेक्ष्य में रखना चाहता है, तो उस पर तत्काल ‘उग्र राष्ट्रवादी' या 'राष्ट्रवादियों के एजेंट' का बिल्ल चस्पा कर दिया जाता है। इसी संदर्भ में यह वर्ग प्रायः कहता है कि मानवता का विचार किया जाना चाहिए। उनकी दृष्टि में एक देश या राष्ट्र का विचार संकीर्ण सोच का परिचायक है।



मैं राष्ट्रवादी हूँ और कोई मुझे राष्ट्रवादी कहे इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं, परंतु यह जिस मंशा से कहा जा रहा है उस पर आपत्ति है।


 स्वाधीनता आंदोलन और उसके विरोधी


यों तो राष्ट्रवाद और पत्रकारिता की चर्चा स्वाधीनता आंदोलन के सन्दर्भ में प्रायः की जाती है, क्योंकि उस समय पत्रकारों का एक वर्ग निहित स्वार्थों के चलते अंग्रेज़ सरकार के गुणगान में लगा रहता था और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े नेताओं की आलोचना करना अपना धर्म समझता था। यही नहीं, उस समय स्वातंत्र्यचेतना के उद्घोष ने। 'वन्देमातरम्' कहने पर मुस्लिम लीग के नेता आपत्ति करते थे। काँग्रेस के अधिवेशनों में इसके गायन का विरोध यह कहते हुए करते थे कि इस्लाम उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। इन्हें ढाका विश्वविद्यालय में 'कमल' के प्रतीक चिह्न पर भी आपत्ति थी। धीरे-धीरे यह अलगाववादी प्रवृत्ति इतनी बलवती हो गई कि इसने देश का विभाजन करा दिया। मुस्लिम लीग की अलगाववादी प्रवृत्ति का आँख मूंदकर समर्थन किया कम्युनिस्ट पार्टी ने।


इस पार्टी ने तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को तोजो का कुत्ता' तक कह डाला। तब सरकार अंग्रेजों की थी इसलिए चर्च का इन्हें समर्थन था। इस सबके विपरीत पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंग्रेज़ सरकार के हर प्रकार के अत्याचारों को सहर्ष सहन करते हुए स्वाधीनता आंदोलन की अलख जगाने में लगा रहा।


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