वेदों में विद्युतविद्या

ब्रह्मा से लेकर महर्षि जैमिनिपर्यन्त सनातन आर्ष-परम्परा के पुनः प्रवर्तक "महर्षि दयानन्द सरस्वती की क्रान्तिकारी एवं शाश्वत सत्य घोषणा 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है' सुनकर पाश्चात्य विज्ञान भक्तों ने सम्भवतः उस काल में उपहास ही किया हो, परन्तु आज संसार उसी ऋषि के मार्ग पर आने को विवश है। हमारी मान्यता है कि जैसे-जैसे विज्ञान विकसित होगा, वैसे-वैसे उसे महर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि दयानन्दपर्यन्त के बताए मार्ग पर आना ही होगा, यदि वह विज्ञान से उन्नत और सुखी होना चाहता है। वेदों में सब सत्य विद्याएँ हैं। वेदों में पदार्थविद्या (विज्ञान) तथा उसमें भी भौतिकविज्ञानान्तर्गत विद्युतविद्या पर विचार किया जाना चाहिए।


वेदों में विद्युत को प्रायः ‘अग्नि' शब्द से सम्बोधित किया गया है। यह अलग बात है। कि ‘अग्नि' शब्द से अन्य ऊर्जा, परमात्मा, जीवात्मा, सेनापति तथा विद्वान्, आदि का भी ग्रहण होता है। यहाँ हम ‘अग्नि' के उस स्वरूपादि का ही विवेचन करेंगे जहाँ इसका अर्थ विद्युत हो सकता है व है। हमारे विचार से वेदार्थ करना ऋषियों को ही उचित है; क्योंकि वे ही साक्षात्कृतधर्मा होते हैं। मात्र व्याकरण, निरुक्तादि के ज्ञान पर तथा वर्तमान विज्ञान के विद्वान् होकर वेद के शब्दों का रहस्य जान लेना असम्भव है। हमारी मान्यता है कि शतपथादि ग्रन्थों का विज्ञान भी कोई विद्वान् उस परमर्षि से अधिक नहीं समझ सकता, क्योंकि वे मन्त्रद्रष्टा थे।



दूसरा पक्ष यह भी है कि कुछ विद्वान् वेद में विज्ञान सिद्ध करने के लिए विज्ञान की मान्यताओं को प्रामाणिक मानकर उन्हें वेद में खोजने का प्रयास करते हैं तथा इसके लिए उन्हें कहीं-कहीं वेदमंत्रों के स्वयं धातु-प्रत्यय का सहारा लेकर ऋषि से अलग अर्थ करने पड़ते हैं। यदि विज्ञान की वर्तमान मान्यता भविष्य में असत्य सिद्ध हो जाए तो उस वेदमंत्र का क्या होगा जो हमने उस मान्यता का स्रोत कहा है और अपने मात्र बुद्धि बल व कल्पना से उस मंत्र का अनर्थ किया है। किस-किस मंत्र का वैज्ञानिक भाष्य हो सकता है, यह अत्यन्त विचारणीय है। कुछ वेदज्ञ सभी मंत्रों का वैज्ञानिक भाष्य करते हैं। तब क्या वेद मात्र भौतिकविज्ञान का ग्रन्थ हैं? यदि हाँ तो जीव का अत्यन्त पुरुषार्थ क्या होगा? इसी कारण मेरी मान्यता है कि जिस-जिस मंत्र का स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जो-जो अर्थ किया है, वह ही उचित व पूर्ण है तथा उनके अर्थों में ही समस्त विद्याओं के शोध के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं।


विद्युत का स्वरूप


विद्युत क्या है, इसका स्वरूप व परिभाषा को कोई वैज्ञानिक समुचितरूपेण स्पष्ट नहीं कर सका है, परन्तु वेद व वेदद्रष्टा ऋषियों के ग्रन्थों के आधार पर विद्युत के स्वरूप का अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट विवेचन किया जा सकता है। इसी आधार पर- 'विद्युत वह अनादि स्वरूपा शक्ति है जो परमसत्ता परमात्मारूपी सारथी व रथी के हाथों अन्य ऊर्जा (शक्तियों) व पदार्थरूपी उन घोड़ों के बीच लगाम है जो सृष्टि-निर्माण, प्रलय व धारण के मार्ग पर दौड़ रहे हैं। यह आद्य जड़ शक्ति, जड़ सत्ता का सार है तथा जड़ को चेतन से जोड़नेवाली है, चाहे वह ईश्वर हो व जीव। धारण, छेदन, आकर्षण-प्रतिकर्षण ही इस लगामरूपी विद्युत के धागे हैं, जिनसे यह बनी है।'


इस परिभाषा की पुष्टि के मार्ग पर ऋषियों तथा वैज्ञानिकों के विचार जानने का यत्न करते हैं। वेदों में विद्युत के लिए प्रायः ‘अग्नि' नाम का उल्लेख हुआ है। कहीं-कहीं ही इसे ‘इन्द्र' कहा गया है। यास्क ने निरुक्त में कहा है, अग्निः कस्मात् । अग्रणीर्भवति। अग्नं यज्ञेषु प्रणीयते। अंग नयति सन्नममानः। अर्थात् अग्नि किससे? क्योंकि यह सबमें अग्रणी होता है। यज्ञों में अग्नि ही सर्वप्रथम लाई जाती है। जो अपने आश्रयदूत पदार्थों को अपने अधीन कर लेती है।


अनेकत्र विद्युत


वेद में अनेकत्र विद्युत- अग्नि को अनादि कहा है। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है। ऋग्वेद (6.62.5) में विद्युत को ‘प्रत्ना' कहा गया है जिसका अर्थ ऋषि करते हैंअनादि वर्तमाना पुराणीमनादिस्वरूपेण नित्याम् अर्थात् विद्युपाग्नि अनादि और नित्य है। वेद में अनेकत्र कार्यरूप विद्युदग्नि को नवीन कहा गया है। कुछ स्थानों पर विद्युत को सर्वप्रथम उत्पन्न होनेवाला कहा गया है। यजुर्वेद (23.54) में द्यौरातीत्पूर्वचित्तिः का अर्थ ऋषि दयानन्द करते हैं- 'विद्युत पहिला संचय है। तब प्रकृतेमहान (सांख्यदर्शन) अर्थात् प्रकृति से महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, के बीच की स्थिति ‘विद्युत' कहलाएगी। महर्षि कपिल, कारणभूता प्रकृति की परिभाषा लिखते हैं- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः (वही, 1.26), अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। संसार के वर्तमान वैज्ञानिक समस्त सृष्टि के मूल उपादान (प्रकृति) की इतनी सुन्दर परिभाषा आज तक नहीं दे सके और न ही वे उस मूल तत्त्व को समझ सके। महर्षि ने अपने ग्रन्थों में इस वैदिक सत्य का सर्वत्र स्वीकार किया है कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति- तीनों अनादि तथा नित्य सत्ताएँ हैं। इनमें उपादन कारण प्रकृति ही है, जिसकी सर्वोत्तम परिभाषा ऊपर लिखी है। ऋग्वेद (9.102.3) में त्रितस्य धारणा अर्थात् तीन गुणों की धारणा शक्ति (प्रकृति) से परमात्मा ने ऐश्वर्य उत्पन्न किया। वस्तुतः इस त्रित से ही परमात्मा का ऐश्वर्य अभिव्यक्त होता है। यदि प्रकृति न हो तो प्रभु की महिमा कौन समझ पाए? ऋग्वेद (10.12.6) में भी प्रकृति को सलक्ष्मा अर्थात् साम्यावस्थावाली कहा है। अब जो साम्यावस्था में है, उनके स्वरूप पर विचार करें। सत्व, रजस् तथा तमस् की तुलना प्रारम्भिक रूप में ख्यातिलब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने क्रमशः प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन तथा न्यूट्रॉन से की है। प्रीतिगुणयुक्त तत्त्व सत्व, क्रियाशील तत्त्व रजस् तथा उदासीन तत्त्व तमस् है। उपर्युक्त तुलना को अन्तिम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अब इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन- तीनों ही मूल कण नहीं जबकि सत्त्वादि तीनों गुण मूल है, नित्य हैं। मेरे विचार से सत्त्व, रजस् तथा तमस् क्रमशः नित्य तथा मूल धनावेश, ऋणावेश एवं उदासीनता की अन्तिम सूक्ष्मतम इकाई का नाम है। अभी तक वर्तमान विज्ञान इनमें से किसी भी तत्त्व को नहीं जान सका है। अब तक इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूटॉन को मूल कण माननेवाला विज्ञान इसी प्रकार के लगभग 200 मूल कणों को खोजने का दावा कर रहा है। फिर स्वयं इन कणों को भी विखण्डित कर रहा है अथवा विखण्डितहोनेवाला मान रहा है। कुछ कणों को अत्यन्त अल्पायुवाला बताया जाता है। जिन कणों को मूल कण कहा जा रहा है, यथा- न्यूट्रॉन तथा प्रोटॉन के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक जो लिखते हैं, उसका भाव यह है कि वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटॉन व न्यूट्रॉनदोनों को ही मूल कण नहीं मानकर इन्हें एक ही प्रकार का कण मान रहे हैं जो मीजोन नामक कण के विनिमय से परस्पर एक-दूसरे में सतत परिवर्तित होता रहता है। 


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