विश्व की उत्पत्ति और नादब्रह्म की वाचक : ॐकार-ध्वनि

सिद्ध गुरुओं को आध्यात्मिक ज्ञान का बीज शिष्य में शब्दों (मंत्र) के द्वारा संप्रेषित करना होता है और इन शब्दों का ध्यान किया जाता है। ये मंत्र क्या हैं? भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रूप ही ऐसी चित्तवृत्ति नहीं रह सकती, जो नाम-रूपात्मक न हो। यदि यह सत्य हो कि प्रकृति सर्वत्र एक ही नियम से निर्मित है, तो फिर इस नाम-रूपात्मकता को समस्त ब्रह्माण्ड का नियम कहना होगा। जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जान लेने से मिट्टी की सब चीजों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार इस देहपिण्ड को जान लेने से समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है। रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गूदा। शरीर है रूप और मन या अन्त करण है नाम; और वाक्शक्तियुक्त समस्त प्राणियों में इस नाम के साथ उसके वाचक शब्दों का अभेद्य योग रहता है। व्यष्टि मानव के परिच्छिन्न महत् या चित्त में विचार-तरंगें पहले 'शब्द' के रूप में उठती हैं और फिर बाद में तदपेक्षा स्थूलतर रूप धारण कर लेती हैं।



बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि-महत् ने पहले अपने को नाम के और फिर बाद में रूप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत् के आकार में अभिव्यक्त किया। यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् रूप है, और इसके पीछे है। अनन्त अव्यक्त स्फोट का अर्थ है-समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात् भावों का नित्य-समवायी अपादानस्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे ईश्वर इस विश्व की सृष्टि करता है। यही नहीं, ईश्वर पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाता है और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेता है। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है 'ॐ'। चूंकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए 'ॐ' भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। अतएव समस्त विश्व की उत्पत्ति, सारे नाम-रूपों की जननीस्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम शब्द से ही मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में यह आशंका उत्पन्न हो सकती है कि यद्यपि शब्द और भाव में नित्य सम्बन्ध है, तथापि एक ही भाव के अनेक वाचक शब्द हो सकते हैं, इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि यह 'ॐ' नामक शब्द विशेष ही सारे जगत् की अभिव्यक्ति के कारणस्वरूप भाव का वाचक हो। तो इस पर हमारा उत्तर यह है कि एकमेव यह 'ॐ' ही इस प्रकार सर्वभावव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी उसके समान नहीं। स्फोट ही सारे शब्दों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रूप से विकसित कोई विशिष्ट शब्द नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते है, निकाल दिया जाए, तो जो कुछ बचा रहता है, वही स्फोट है। इसलिए इस स्फोट को ‘नादब्रह्म' कहते हैं।


अब इस अव्यक्त स्फोट को प्रकाशित करने के लिए यदि किसी वाचक शब्द का उपयोग किया जाय, तो यह शब्द उसे इतना विशिष्टीकृत कर देता है कि उसका फिर स्फोटत्व ही नहीं रह जाता। इसलिए जो वाचक शब्द उसे सबसे कम विशिष्टीकृत करेगा, पर साथ ही उसके स्वरूप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वही उनका सबसे सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है एकमात्र “ॐ' । क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म, जिनका एकसाथ उच्चारण करने से 'ॐ' सारी ध्वनियों में सबसे कम विशिष्टीकृत है। इसलिए कृष्ण गीता (10.33) में कहते हैं- ‘अक्षरों में मैं ‘अ’ कार हूँ'- अक्षराणामकारोऽस्मि। स्पष्ट रूप से उच्चारित जितनी भी ध्वनियाँ हैं, उनकी उच्चारण-क्रिया मुख में जिह्वा के मूल से आरम्भ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है- 'अ' ध्वनि कण्ठ से उच्चारित होती है और ‘म’ अन्तिम ओष्ठ्य ध्वनि है। और 'उ' उस शक्ति की सूचक है, जो जिह्वा मूल से आरम्भ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त होती है। यदि इस 'ॐ' का उच्चारण ठीक ढंग से किया जाए, तो इससे शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है- दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। अतएव यह 'ॐ' ही स्फोट का सबसे उपयुक्त वाचक शब्द है- और यह स्फोट ही 'ॐ' का प्रकृत वाच्य है। चूंकि वाचक वाच्य से कभी अलग नहीं हो सकता, इसलिए 'ॐ' ही ईश्वर का सच्चा वाचक है। जिस प्रकार अपूर्ण जीवात्मागण एकमेव अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन विशेष भाव से और विशेष गुणों से युक्त रूप में ही कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके देहरूप इस अखिल ब्रह्माण्ड का चिन्तन भी, साधक के मनोभाव के अनुसार, विभिन्न रूप से करना पड़ता है।


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