बीसवीं शताब्दी के महान् भारतीय सरदार पटेल

अपने लंबे इतिहास में अनेक उथल-पुथल और लगभग " एक हजार वर्ष तक इस्लामी आतंकवाद का शिकार रहने के बावजूद भारत अथवा हिंदुस्थान ने अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को कायम रखा। इसके कई कारण है परंतु उनमें से एक प्रमुख कारण यह है कि देश में समय-समय पर ऐसे महापुरुष पैदा होते रहे जिन्होंने हर संकटकाल में, इसमें संघर्ष, आज़ादी और एकता की भावना कायम रखी। ऐसे महापुरुषों में सरदार वल्लभभाई पटेल भी एक हैं। अपनी उपलब्धियों के आधार पर इतिहास उन्हें 20वीं शताब्दी के सबसे महान् भारतीय, हिंदू अथवा इण्डियन के रूप में याद रखेगा।


सरदार पटेल की सबसे बड़ी उपलब्धि पाकिस्तान और अंग्रेजों के कुचक्रों के बावजूद खण्डित भारत में रह गई 500 से अधिक देशी रियासतों को खण्डित देश के साथ जोड़ना और सारे देश को सुचारु और सुदृढ़ प्रशासन देना था। केवल एक ऐसी रियासत थी और है जो आज हिंदुस्थान के लिए सिरदर्द बनी हुई है, वह रियासत है जम्मू और कश्मीर। पं. नेहरू ने इस रियासत और हैदराबाद को सरदार पटेल के कार्यक्षेत्र से बाहर रखा था, परंतु हैदराबाद की रियासत को तो वहाँ के हालात बहुत खराब हो जाने के बाद केंद्रीय मंत्रिमण्डल के हस्तक्षेप से पटेल के कार्यक्षेत्र में पुनः डाल दिया गया।



उसके बाद सरदार पटेल ने जिस दक्षता और दृढ़ता के साथ हैदराबाद द्वारा पैदा किए गए संकट को हल किया और उस रियासत का शेष भारत में विलय किया, वह एक ऐतिहासिक घटना है जो युगों-युगों तक देशभक्तों को प्रेरणा देती रहेगी। परंतु पं. नेहरू के इस दावे के कारण, कि वह स्वयं कश्मीरी हैं और कश्मीर को बेहतर जानते हैं, जम्मू-कश्मीर रियासत को उनके कार्यक्षेत्र से निकालकर सरदार पटेल के कार्यक्षेत्र में नहीं डाला जा सका। यह जम्मू-कश्मीर और शेष भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य सिद्ध हुआ है।


इस सन्दर्भ में मुझे सरदार पटेल के साथ कश्मीर के संबंध में मार्च, 1948 में विस्तार से हुई चर्चा याद आती है। जम्मू कश्मीर प्रजा परिषद् के निर्माता और नेता के रूप में मैं सरदार पटेल से मिलने के लिए और उन्हें जम्मू-कश्मीर की स्थिति और शेख अब्दुल्ल के कुचक्रों के चलते वहाँ बढ़ते अलगाववाद से अवगत करवाने के लिए स्वयं दिल्ली आया था। उन्होंने बड़े ध्यान से चुपचाप मेरी बात सुनी। जब मैं अपना कथन समाप्त कर चुका था तो वह एक वाक्य में बोले, वह था- “बलराज यू आर ट्राइंग टू कन्वींस अ कन्वींस्ड मैन।'' अर्थात् तुम एक ऐसे आदमी को समझाने की कोशिश कर रहे हो जो जम्मू-कश्मीर के बारे में सब कुछ जानता है, परंतु कुछ कर नहीं सकता। उन्होंने आगे कहा, “जम्मू-कश्मीर का मामला पं. नेहरू ने अपने हाथ में रखा हुआ है और मैं उसमें दखल नहीं दे सकता, परंतु यदि यह मामला मेरे हवाले कर दें, तो एक महीने में सब कुछ ठीक कर दूंगा।'' काश! ऐसा हो पाता परंतु हुआ नहीं, इसलिए पं. नेहरू और उनके चहेते शेख अब्दुल्ला के कुचक्रों पर न अंकुश लग सका और न ही कश्मीर का मामला हुल हो सका।


कश्मीर के मामले को अधिक पेचीदा और वहाँ के मुसलमानों के अलगाववाद को संवैधानिक संरक्षण देने का काम हिंदुस्थान के संविधान की धारा 370 ने किया। सरदार पटेल, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. अंबेडकर-जैसे अन्य राष्ट्रवादी मंत्री इस धारा के विरुद्ध थे। यही स्थिति संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों की भी थी। इसी कारण उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए यह आश्वासन दिया गया कि यह धारा अस्थाई होगी और शीघ्र ही हटा ली जाएगी, परंतु 1950 में सरदार पटेल के निधन के बाद पं. नेहरू और शेख अब्दुल्ला बेलगाम हो गए और 'शैतान की आँत' की तरह यह अस्थाई धारा संविधान में बनी रही। कश्मीर में बढ़ते अलगाववाद और आतंकवाद का यह मूल कारण है, जिसकी वजह से कश्मीरी मुसलमानों के मन में यह बात जम चुकी है कि कश्मीर भारत का अंग नहीं है और इसके भविष्य का फैसला अभी होना है।'


कश्मीर के मामले में पं. नेहरू की नीति की विफलता और 500 से अधिक अन्य रियासतों के संबंध में अपनाई गई सरदार पटेल की नीति की सफलता सरदार पटेल की महानता और इतिहास में उनके स्थान को दर्शाती है।


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