भारत के प्रथम सिविल इंजीनियर ਮਗੀਦथ

भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक वीर पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण के हेतु न्यौछावर कर दिया। ऐसे वीर पुरुषों में एक नाम जो भारतीय इतिहास के गगन में युगों से नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान है, जिसकी अमर गाथा आनेवाली पीढ़ियाँ कभी न भुला सकेंगी, वह नाम है- महाराज भगीरथ।। भारतीय ज्ञान-परम्परा में वेदों और पुराणों का महान् योगदान है। इतिहास को पश्चिमी दृष्टि से देखनेवाले पाठक पुरातात्त्विक सामग्री को ही इतिहास का स्रोत मानते हैं और साहित्यिक स्रोतों में जो बात उनकी समझ से परे है, उसे वे मिथक मान लेते हैं। वास्तव में किसी भी देश की माइथोलॉजी को समझने के लिए उस देश की मूलवृत्ति, चरित्र व दर्शन को समझना नितांत आवश्यक है। भारत मूलतः एक अध्यात्मप्रधान देश है, तप और त्याग इसके प्राणाधार हैं, अतः यहाँ के प्राचीन वाङ्मय में उसकी छाप दिखाई पड़ती है। हमारा समस्त वाङ्मय रूपकमय और अलंकृत काव्यमयी प्रतीकात्मक भाषा में है, परंतु यदि हम अवबोध के स्तर पर जाकर ज्ञानविवेक दृष्टि से इन घटनाओं का अध्ययन करें, तो संदेह के तमाम खरपतवार हट जायेंगे। रामायण, महाभारत और पुराणों में वर्णित भगीरथ द्वारा स्वर्ग से पृथिवी पर गंगा अवतरण की पौराणिक कथा भी एक ऐसी ही रूपक कथा है, जिसे शोधात्मक दृष्टिकोण से देखने, पढ़ने व समझने पर इसमें निहित वैज्ञानिक रहस्यों से पर्दा उठने लगता है। परंतु इस कथा के विश्लेषणात्मक अध्ययन पर पहुँचने से पूर्व पतितपावनी माँ गंगा के अवतरण के इतिहास की टूटी कड़ियाँ जोड़कर उन पर दृष्टिपात करना नितांत आवश्यक है।



वाल्मीकीयरामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गंगा को धरती पर लाने का श्रेय इक्ष्वाकुवंशाय महाराज भगीरथ को जाता है, परंतु यह प्रयास एकांगी नहीं था। वरन् अयोध्या के इक्ष्वाकु राजवंश की दस पीढ़ियों के सतत् प्रयास का परिणाम था जिसमें निर्णायक सफलता भगीरथ को मिली। भगीरथ द्वारा स्वर्ग से गंगा धरती पर लाने की कथा का विवरण वाल्मीकीयरामायण के अलावा महाभारत और विष्णुपुराण में भी वर्णित है। विष्णुपुराण का एक पूरा अध्याय (अंश 4, अध्याय 4) गंगावतरण की इस ऐतिहासिक गाथा को समर्पित है जिसके श्लोक 35 में इक्ष्वाकु वंश के प्रयासों व भगीरथ की विपुल तप की गाथा को दिलीपस्य भगीरथः योऽसौ गंगा स्वर्गादिहानीयसंज्ञां चकार कहकर उल्लेख किया गया है।


इस कथा-प्रसंग का वर्णन वाल्मीकी रामायण (बालकाण्ड, 42.25; सर्ग 4344), महाभारत (वनपर्व, 108-109, द्रोणपर्व, 60 आदि) तथा शिवपुराण (11.22) में भी वर्णित है। यदि इनका क्रमबद्ध अध्ययन करें, तो ज्ञात होता है कि गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण की इस कथा में अनेक रूपक कथाएँ दर्ज हैं। इन्हें समझने पर ज्ञात होता है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इक्ष्वाकु-वंश के प्रतापी राजाओं द्वारा गंगा को धरती पर लाने के प्रयास किए गए, जिसमें निर्णायक सफलता राजा भगीरथ को अथक परिश्रम के बाद मिली। गंगा को धरती पर लाने के प्रयासों का आरम्भ इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर से होता है।


रामायण के अनुसार महाराज सगर ने अश्वमेध-यज्ञ प्रारम्भ किया, जिसमें परम्परानुसार छोड़ा गया यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुराकर पाताल स्थित कपिल-मुनि के आश्रम में बाँध दिया। यादवराज अरिष्टनेमी की पुत्री प्रभा, जो सगर की पत्नी थी, से प्राप्त अपने साठ हजार पुत्रों को सगर ने धरती छानकर अश्व ढूँढ़ने का आदेश दिया। वे साठ हजार सगर-पुत्र चतुर्दिक् गये। समुद्र के पास जाकर जमीन खोदी, उसे बड़ा कर दिया, तब से ही ‘समुद्र' का नाम 'सागर' हो गया। वाल्मीकीयरामायण के बालकांड 40.24 के अनुसार ततः प्रागुत्तरां गत्वा... अर्थात् तब वह पूर्वोत्तर दिशा में गए, तब कपिल मुनि के आश्रम के पास घोड़ा मिला। यही बात महाभारत (वनपर्व, 107.28) में भी आई है- ततः पूर्वोत्तर देशे..., अर्थात् सगरपुत्र जब खोजते-खोजते पूर्वोत्तर में गए, तब कपिल-आश्रम में अश्व बँधा नज़र आया। क्रुद्ध सगरपुत्रों ने कपिल मुनि से अभद्र व्यवहार किया, जिससे मुनि की समाधि भंग हुई और उनकी आग्नेय दृष्टि पड़ने ही योगाग्नि से साठ हजार पुत्र भस्म हो गये।


इन्हीं सगर-पुत्रों की ‘कपिल-शाप' से उद्धार करने के पवित्र-संकल्प की गाथा - गंगावतरण की कथा। सगर ने तमाम पुत्रों के काल-कवलित होने पर भी हार न मानी और यह दायित्व अपने पौत्र अंशुमान सौंप दिया। सगर के बाद अंशुमान राजा हुए। उन्होंने अपना समस्त राज्य-भार अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया स्वयं गंगा को पृथिवी पर लाने हेतु घोर तपस्या करते हुए शरीर त्याग दिया। दिलीप भी अपने जीवनकाल में गंगा को पृथिवी पर लाने का प्रयास करते रहे, परंतु उन्हें कोई मार्ग न मिला और अन्ततः बीमार होकर उनका देहावसान हो गया। रामायण, महाभारत व पुराणों की कथाओं को मिलाकर पढे, तो गंगा हेतु उपर्युक्त सभी राजाओं की भारी तपस्या का लोमहर्षक वर्णन मिलता है। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि इक्ष्वाकु वंश के यह सभी राजा कपिल-मुनि के शाप भस्मीभूत हुए अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा को भारतभूमि पर लाने का प्रयास लगभग दो-ढाई या तीन सदियों तक अनवरत करते रहे, परंतु सफलता न मिली।


यहाँ सगर द्वारा किए गए अश्वमेध-यज्ञ का शाब्दिक अर्थ विन्यास देखने पर इस कथा का वास्तविक रूप सामने आता है। वेदों में आपः अर्थात् जल के एक पर्याय के रूप में प्रचलित शब्द 'अश्व' भी रहा है। अश्व अर्थात् जल, मेध का शाब्दिक अर्थ है- वर्धन करना और 'यज्ञ' से तात्पर्य है‘अनुसंधान करना' । इस प्रकार ‘अश्वमेधयज्ञ' का वास्तविक अर्थ हुआ जल-वर्धनअनुसंधान। ‘प्राचीन भारतीयों की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ' पुस्तक के लेखक आचार्य परमहंस ने भी अपने शोध के आधार पर गंगावतरण के इतिहास में इस तथ्य की व्याख्या करते हुए यही लिखा है। आचार्य परमहंस के अनुसार तब भारत की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी, इस कारण खाद्यान व जलाभाव होने लगा था। कृषि-उत्पाद में वृद्धि लाने का सगर के पास एक ही उपाय शेष था- बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना। इसके लिए आवश्यक थी- अथाह जलराशि। अतः सगर ने अश्वमेध-यज्ञ अर्थात् जलसंर्वधन अनुसंधान करना शुरू किया।


दूसरा रूपक है- ‘सगर के साठ हजार पुत्र' । वस्तुतः यह उनकी प्रजा थी; क्योंकि राजा वास्तव में समस्त प्रजा का पिता कहा गया है। यदि हम ‘हिस्टॉरिसिटी ऑफ वैदिक एण्ड रामायण इराज : सायंटिफिक एविडेण्सेस फ्रॉम दी डेप्थ्स ऑफ ओसियन्स ऑफ़ दी हाइट्स ऑफ स्काइज़' के सन्दर्भ में देखें, तो सगर के साठ हजार पुत्र उनके वे सैनिक या कार्यकर्ता थे जो पानी की खोज में धरती खोदने गये थे।


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