भारतीय इतिहास का देदीप्यमान नक्षत्र महाराजा हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य, भारतीय ० इतिहास के विस्मृत उन चुनिन्दा लोगों में परिगणित हैं जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़कर रख दी थी। हिंदू-सम्राट् हेमचन्द्र विक्रमादित्य, पृथिवीराज चौहान (1179-1192) के बाद इस्लामी शासनकाल के मध्य सम्भवतः दिल्ली के एकमात्र या अन्तिम हिंदू-सम्राट् हुए। उन्होंने अलवर (राजस्थान) के बिल्कुल साधारण-से घर में जन्म लेकर एक व्यापारी, माप-तौल अधिकारी, दरोगा-ए-डाक चौकी', ‘वज़ीर' (प्रधानमंत्री) और सेनापति होते हुए दिल्ली के तख्त पर राज किया और अपने अपार पराक्रम एवं 22 युद्धों में विजयी रहकर 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। यह वह समय था जब मुगल एवं अफगान- दोनों ही दिल्ली पर राज्य के लिए संघर्षरत थे। यद्यपि हेमचन्द्र अधिक समय तक शासन न कर सके, तथापि इसे भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना अवश्य कहा जायेगा। हेमचन्द्र की तूफानी विजयों के कारण कई इतिहासकारों ने उनको ‘मध्यकालीन भारत का नेपोलियन कहा है।



प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भगवतशरण उपाध्याय (1910-1982) ने लिखा है, 'यशोवर्मन के प्रायः हजार वर्ष पश्चात् विदेशियों को बहिर्गत करने का एक प्रयास और हुआ। वह था रेवाड़ी (हरियाणा का गुड़गाँव जिले) के भृगुवंशीय हेमचन्द्र का प्रयास। सोलहवीं शती ईसवी के मध्य में हेमचन्द्र को मुसलमान लेखकों ने हेमू । नाम से लिखा है, शायद इसी कारण कि वे उसकी राजनीतिक और सामरिक योग्यता से चिढ़े हुए थे। वे राजपूतों को छोड़ हिंदुओं में किसी और वर्ण को सामरिक श्रेय देने को तैयार न थे। आधुनिक भार्गव लोग हेमचन्द्र को अपना पूर्वज मानते और अपने को ब्राह्मण कहते हैं। इनका गोत्र निःसन्देह भृगु का है और ये ब्राह्मण हो सकते हैं, यद्यपि अष्टाध्यायी के विद्यायोनिसंबंधौ सूत्र के अनुसार गुरु और पिता- दोनों के नाम पर गोत्र बन सकते थे।


मुसलमानों ने हेमचन्द्र को, जो ‘बक्काल (बनिया) लिखा है, उसका कारण सम्भवतः उनका वैमनस्य था। यह सम्भव है कि आज ही की भाँति चूंकि भार्गव व्यापार करने लगे थे, मुसलमानों को उनके बनिया होने का भ्रम हो गया हो।'


जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन


हेमचन्द्र, राय जयपाल के पौत्र और राय पूरणदास (लाला पूरणमल) के पुत्र थे। इनका जन्म आश्विन शुक्ल विजयदशमी, मंगलवार, विक्रम संवत् 1556, तदनुसार 02 अक्टूबर, 1501 ई. को राजस्थान के अलवर जिले के मछेरी नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता पहले पौरोहित्य कार्य करते थे, किन्तु बाद में मुगलों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने के कारण कुतुबपुर, रेवाड़ी में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे।


हेमचन्द्र की शिक्षा रेवाड़ी में आरम्भ हुई। उन्होंने संस्कृत, हिंदी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुड़सवारी में भी महारत हासिल की। साथ ही पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरू कर दिया। अल्पायु से ही हेमचन्द्र, शेरशाह सूरी (1540-1545) के लश्कर को अनाज एवं बन्दूक चलाने में प्रयोग होनेवाले प्रमुख तत्त्व पोटेशियम नाइट्रेट अर्थात् शोरा उपलब्ध कराने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे। इसी बारूद के प्रयोग के बल पर शेरशाह सूरी ने हुमायूँ (1531 1540 एवं 1555-1556) को 17 मई, 1540 ई को कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध में हराकर काबुल लौट जाने पर विवश कर दिया था। हेमचन्द्र ने उसी समय रेवाड़ी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी वहाँ पीतल, ताँबा, इस्पात के बर्तन आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।


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