गाथा राष्ट्रनायको की

समुद्रगुप्त असाधारण योद्धा, समर विजेता एवं अजातशत्रु थे। उन्होंने भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का महान् कार्य किया था। छोटे राज्यों के पारस्परिक वैमनस्य को रोकते हुए एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना उन्होंने की थी। उनका शासनकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, सामरिक दृष्टि से अत्यन्त सुदृढ़ था। उनका अद्वितीय व्यक्तित्व उदारता, प्रतिभा तथा असाधारण गुणों का पर्याय था। वह एक विद्वान्, कवि, संगीतज्ञ, कलाप्रेमी, साहित्यकार, सेनानायक, सफल संगठनकर्ता, पराक्रमी, प्रजापालक, दानपरायण, महान् दिग्विजयी शासक थे।


समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। उनकी माता लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी थीं। वह अपने माता-पिता का इकलौते पुत्र न थे। उनके अन्य भाई-बहिन भी थे। समुद्रगुप्त बाल्यकाल से ही बड़े विलक्षण, प्रतिभाशाली थे, जिसके कारण अपने सभी भाइयों में वह योग्य, वीर एवं साहसी थे। इसके कारण उनके पिता ने उनको अपना उत्तराधिकारी बनाया।



समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार 335-380 ई. में किया। हरिषेन की प्रयागप्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का अपार विस्तार किया। उन्होंने अपनी दिग्विजय-यात्रा का प्रारम्भ उत्तर भारत के राजाओं पर विजय प्राप्त करके किया। उन्होंने नेपाल, असम, बंगाल के सीमावर्ती प्रदेश, पंजाब को अपने आधिपत्य में ले लिया था। आटविक, अर्थात् जंगली राज्यों में उन्होंने उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर और विध्यांचल क्षेत्र को अपने वश में किया। दक्षिण भारत के 12 शासकों को हराकर छोड़ दिया । प्रयागप्रशस्ति में पल्लवों पर भी उनके विजय-अभियान का उल्लेख मिलता है।


विदेशी राज्यों में अफगानिस्तान पर राज्य करनेवाले, शकों, कुषाणों को भी अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करवायी। चीनी स्रोत के अनुसार- उन्होंने लंका के राजा मेघवर्मन के द्वारा भेजे गए दूत से प्राप्त सन्देश पर, गया में विशाल बौद्ध मन्दिर और विहार बनाया। प्रयागप्रशस्ति में उनको ‘अजातशत्रु' कहा गया है। यूरोपीय इतिहासकारों ने उनकी बहादुरी और युद्ध-कौशल के कारण भारत का नेपोलियन' कहा है। समुद्रगुप्त का साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र, दक्षिण नर्मदा तथा उत्तर में काश्मीर तक फैला हुआ था।


समुद्रगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य को अनेक प्रान्तों, जनपदों और जिलों में विभाजित किया था। अभिलेखों के अनुसार-जो सरकारी पदाधिकारी होते थे, उसमें खाद्य-पाकिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक, सन्धिविग्रहिक तथा सम्राट् का प्रधान परामर्शदाता होता था। साम्राज्य के दूरस्थ भागों का शासन सामंत, राजा के प्रतिनिधि के रूप में किया करते थे। समुद्रगुप्त ने मुद्रा-सम्बन्धी अनेक सुधार किये। उन्होंने शुद्ध स्वर्ण की मुद्राओं तथा उच्च कोटि की ताम्रमुद्राओं का प्रचलन करवाया। समुद्रगुप्त ने रजत-मुद्राओं का प्रचलन नहीं करवाया था। दान में भी वह शुद्ध सोने की मुद्रा प्रदान करते थे। यह उनके शासन के वैभव का प्रतीक है। मुद्राओं द्वारा उनके जीवनचरित्र, व्यक्तित्व, अभिरुचि, संगीत और कला-प्रेम, प्रशासनिक व राजनैतिक उपलब्धियों का पता चलता है। उन्होंने गरुड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्रहंता और वीणा प्रकार की मुद्राएँ प्रचलित करवाई थी।


समुद्रगुप्त ने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक गणतान्त्रिक विशाल साम्राज्य का रूप प्रदान किया था, जिससे भारत की राजनीतिक एकता सुदृढ़ हुई। अश्वमेध-यज्ञ के द्वारा उन्होंने भूमिबन्धन कराकर अपने दिग्विजयी होने तथा चक्रवर्ती सम्राट् होने का प्रमाण प्रस्तुत किया था। वह श्रेष्ठ वीणावादक थे। अनेक स्वर्ण मुद्राओं पर वीणा वादन करती हुई ऊंचे मंच पर बैठी हुई समुद्रगुप्त की राजमूर्ति अंकित है। उन्होंने स्वयं कुछ काव्य-ग्रन्थों की रचना भी की थी, जो दुर्भाग्यवश लुप्त हो गयीं। समुद्रगुप्त उच्च कोटि के विद्वानों के प्रशंसक व संरक्षक थे। वह उदार, धार्मिक दृष्टिकोण से सम्पन्न शासक । उन्होंने ब्राह्मण एवं शूद्र, वैष्णव एवं शैव आदि किसी के साथ भेदभाव नहीं किया।


समुद्रगुप्त के सम्बन्ध अपने देश से ही नहीं, अपितु विदेशी शासकों के साथ भी मैत्रीपूर्ण एवं मधुर थे। सम्पूर्ण भारत को तत्कालीन समय में राजनीतिक एकता, सांस्कृतिक एकता में बाँधनेवाले वह महान् चक्रवर्ती सम्राट् थे।


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