कृष्ण कर्मयोगी ही नहीं !

 मै जब भी कृष्ण की रासलीलावाला चरित्र देखता हूँ, माखन चुराने, खाने-खिलानेवाला, गोपियाँ छेड़नेवाला, ढिठाई, छिछोरापन करनेवाला, कृष्ण तो मन में अनायास प्रश्न उठता है- क्यों नहीं, उनका महाभारतवाला रूप, कूटनीतिज्ञ, विद्वान्, राजनेता और विद्रोही योद्धावाला रूप, दिखाया-पढ़ाया जाता? पाञ्चजन्य शंख फेंकते हुए, चक्र घुमाते हुए, अन्याय के खिलाफ रथ का टूटा पहिया उठाए हुए कृष्ण! नायक कृष्ण!! सलाहकार कृष्ण!!! योद्धा कृष्ण।


यूँ देखा जाय तो कृष्ण जन्मजात विद्रोही थे या कहिए नाराज़ योद्धा। जरा देखिए तो जन्मे-कहाँ, पले-कहाँ, बढ़े कहाँ। उसके जन्म से पहले ही भविष्यवाणियाँ हो गई हैं। कि वह अत्याचारी का काल है। गरीब यादव-अहीर का बेटा, तानाशाही के ख़िलाफ़, उसके जन्म से ही मायाजाल बुना गया है। एक मनोविज्ञान, कि उसे बचाना, उसकी रक्षा करना आवश्यक है। जेल के द्वार अपने आप नहीं टूटे हैं, तुड़वाए गए हैंद्वारपाल अपने आप नहीं सोए हैं, उन्हें सुलाया गया है और योजनाबद्ध तरीकों से उसे भयावह आधी रात को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया जा रहा है। विद्रोही वह जन्मजात है। अपने साथ बचपन से गरीब, विकलांग, किसान बच्चों को लेकर खेलने चला है। हर गलत बात पर लड़ता-झगड़ता, अन्याय के खिलाफ परचम उठाए। अब इसे ही ले लीजिए न, देवों की पूजा क्यों हो? ये इन्द्र कौन हैं? और इन्द्र की पूजा क्यों हो? उसकी पूजा बंद हो। इन्द्र का सारा भोग खुद खा गए। कृष्ण के पहले के सारे चरित्र नायक, आकाश से उतरे अवतारी पुरुष हैं, देव हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अवतार कृष्ण से पूर्व की कल्पना है, त्रेतायुग में राम' निरन्तर आकाश का देव बनने की लालसा से मर्यादित हैं। उनमें ईश्वरीय देवत्व के गुण अधिक हैं। कृष्ण ऐसा महानु नायक है, जो निरन्तर मनुष्य होना चाहता है। कृष्ण सुकुमार, अबोध और सम्पूर्ण मनुष्य है। भरपूर खाओ और खिलाओ। भरपूर प्यार किया भी, सिखाया भी, जन-जन की रक्षा भी की। निर्लिप्त भोग भी किया, त्याग भी।



हमारे गाँव का दूध, बाहर क्यों जाए? जब तक कि यहाँ रहनेवाले हर नागरिक को उसकी आवश्यकतानुसार दूध न मिले। हाँबचने पर दूसरे गाँव भी बेचने जाओ। पर पहले यहाँ की ज़रूरत तो पूरी करो- इन जैसे छोटे-छोटे किन्तु विचारणीय मुद्दों पर लड़ते-लड़ते कृष्ण का बचपन बीता है। तानाशाह ‘कंस', जिसने लोकतंत्र की हत्या कर अपने पिता को ही कारावास में डाल रखा है, उस आततायी, अत्याचारी का वध करके भी कृष्ण गद्दी पर नहीं बैठते। कृष्ण लोकतंत्र की स्थापना करते हैं। निरंकुश शासन, सत्ता के खिलाफ कृष्ण का विद्रोह जनचेतना युक्त क्रान्ति है, उसमें सारे गुण क्रान्तिकारियों से हैं। जैसे, सत्ता मिलने के बाद गाँधी और जयप्रकाश या चेग्वेरा कुर्सी से दूर जा खड़े हुए, उनका उद्देश्य कुर्सी नहीं व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना था। एक क्रान्तिकारी के सारे गुण, कृष्ण में कूटकूटकर भरे पड़े हैं। मैं बचपन से ‘रणछोड़ नाम सुन-सुनकर हँसता था, तो क्या कृष्ण भी भगौड़ा था? यूँ हमारे और भी नायक हैं। जो अपना पराक्रम रणभूमि से भागकर दिखा गए हैं। ज्ञानवापी के शिव। लड़ते-लड़ते थके शरीर को भी तो भागने का अवसर होना चाहिए। लेकिन कृष्ण हारे-थके नहीं भागे, वे भागे हैं आराम कर, एक बार फिर युद्ध करने को, उन्हें अपनी शक्ति बढ़ाने को एक मौका, अवसर और चाहिए। कृष्ण की यह पहली-पहली लड़ाई आजकल के ‘छापामार युद्ध की तरह थी। वार करो और भागो। बाद के काल में शिवाजी, कमालपाशा, गेरीबाल्डी ने ऐसा ही तो किया था। अपनी रक्षा कर लोगे, तभी तो दूसरा वार भी कर पाओगे। आजाद ने भगत सिंह को इसलिए तो बचाना चाहा था। संभवतः यही कारण है कि भारतीय क्रान्तिकारियों को किसी और पुस्तक की बनिस्बत 'गीता' ने सर्वाधिक प्रभावित किया अनेक क्रान्तिकारी फाँसी चढ़ने से पूर्व 'गीता' की पोथी ही हाथ में लिए चढ़े हैं। ये तो द्रष्टा की दृष्टि है कि किसमें क्या देखें। गीता तो बच्चों का बादल है। डॉ. राधाकृष्णन ने गीता में 'दर्शन' देखे और गाँधी ने गीता में भी ‘अहिंसा' खोज निकाली, मगर तिळक ने गीता में भी ‘कर्म' और क्रान्ति देखी।


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