महानायक सुभाष, जिनकी निर्वासित सरकार को नौ देशों ने मान्यता दी थी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम लेते ही एक ऐसी तेजोमयी मूर्ति " दृश्यपटल पर अंकित हो जाती है, जिसे अपने प्यारे देश भारत को एक क्षण के लिए भी पराधीन देखना सहन नहीं था। अंग्रेजों को भारत से बाहर भगाने के लिए आन्दोलन तो बहुतों ने किए, लेकिन जितनी अल्पावधि में नेताजी ने अपने कार्य का प्रभाव छोड़ा, उसकी मिसाल नहीं मिलती। सुभाष हर दृष्टि से अनूठे थे। अपनी विलक्षण कार्यपद्धति, कूटनीतिक चरित्र और साम-दान-दण्ड-भेद-सभी नीतियों का समुचित उपयोग करते हुए शत्रु को समूल नष्ट करने की उनकी भावना उनको अनन्य वीरता के दिव्य अवतार और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के महानायक के रूप में खड़ा करती है।


भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में सुभाष चन्द्र बोस किसी फ़िल्मी कथा के नायक दिखाई देते हैं। जैसे वह विद्युत की तरह चमके और देदीप्यमान हुए और अचानक वह प्रकाश-पुंज कहीं लुप्त हो गया।



सन् 1939 में महात्मा गाँधी द्वारा निजी हार मानने के बाद काँग्रेस से अलग होकर सुभाष ने आगामी छः वर्षों में क्या कुछ नहीं किया। अंग्रेजों को चकमा देकर कलकत्ता से गोमो, वहाँ से पेशावर, वहाँ से काबुल, फिर मास्को, वहाँ से बर्लिन जाकर उस युग के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर से मिलना, जर्मनी में 'आजाद हिंद रेडियो' की स्थापना करना; वहाँ से जापान और सिंगापुर जाकर आजाद हिंद फौज का गठन करना, सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति (सुप्रीम कमाण्डर) के रूप में स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार का गठन करना, खुद इस सरकार का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बनना, इस सरकार को नौ देशों द्वारा मान्यता देना; आजाद हिंद बैंक की स्थापना करके कागजी मुद्रा जारी करना; आजाद हिंद फौज का अंग्रेजों पर आक्रमण करके भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों मुक्त कराना, फिर अचानक उस तेजपुंज का लोप हो जाना—यह सब एक स्वप्न की भाँति लगता है। बाबू ने जर्मनी-यात्रा से लेकर आगे की यात्राओं में किस प्रकार भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रयास किया, इसका प्रामाणिक विवरण प्रायः पढ़ने में नहीं आता यहाँ हम वही विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। 


जर्मनी पहुँचकर सुभाष बाबू हिटलर से मिले। उन्होंने हिटलर से कहा कि मैं जर्मनी के भारतीय निवासियों और विश्वयुद्ध में पकड़े गए भारतीय सैनिकों की एक सेना बनाना चाहता हूँ। हिटलर ने इसे स्वीकार कर लिया। जनवरी, 1942 के प्रारंभ में सुभाष बाबू ने जर्मनी में भारतीय स्वाधीनता लीग के अंतर्गत सेना की एक बटालियन बनायी। इसी प्रकार का संगठन वह जापान और सुदूर पूर्व में भी बनाना चाहते थे। नेताजी बर्लिन में जापानी राजदूत से मिले और उससे कहा कि मैं जापान के भारतीयों का एक संगठन बनाना चाहता हूँ। राजदूत को विचार पसंद आया। जापानी सरकार ने पूर्वी एशिया में भारतीय सेना की एक टुकड़ी का संगठन किया।


एक जापानी मेजर जरनल (उस समय कर्नल) यामामोतो, जो बर्लिन-स्थित जापानी दूतावास का अफ़सर था, नेताजी को जापान में आईएनए की गतिविधियों की बराबर खबर दिया करता था।


 


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