महाराजा रणजीत सिंह, जिन्होंने फहटायी हिन्दू-साम्राज्य की विजय-पताका

शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह को कौन नहीं जानता? केवल पंजाब ही नहीं, देश-विदेश तक इस रोबदार राजा का नाम गर्व से लिया जाता है। महाराजा रणजीत सिंह को न केवल सियासी दाँव-पेंव के सिलसिले में, बलिक सिख पंथ का अनुयायी उन्हें अपने सम्प्रदाय के प्रति सच्ची श्रद्धा और की गई सेवा के कारण भी मानसम्मान से याद करता है। रणजीत सिंह सिख साम्राज्य के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा थे। वह एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों और अफगानों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं फटकने दिया। सन् 1801 में वैशाखी के दिन लाहौर में गुरु नानक देव के एक वंशज बाबा साहिब बेदी से अपने माथे पर तिलक लगाकर रणजीत सिंह ने मात्र 21 वर्ष की आयु में स्वतंत्र भारतीय राज्य की घोषणा की थी और 'महाराजा' की उपाधि धारण की थी। रणजीत सिंह ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाकर सिख राज्य कायम किया था। कालांतर में वह ‘शेर-ए-पंजाब' के नाम से प्रसिद्ध हुए। पहली आधुनिक भारतीय सेना ‘सिख खालसा सेना' गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। रणजीत सिंह की ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकार जे.टी. वीलर के चेचक हो गया था जिसके कारण उनकी बायीं आँख जाती रही। उनकी किताबी तालीम की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी, जिसके कारण वह अपढ़ भले ही रह गए, किन्तु उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धविद्या में निपुणता प्राप्त की। दस वर्ष की उम्र से ही उन्होंने अपने पिता के साथ सैनिक अभियानों में जाना शुरू कर दिया था।



रणजीत सिंह मात्र बारह वर्ष के थे जब उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में ‘कन्या मिसल' के सरदार की बेटी महतबा कौर से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रियाकलाप अपनी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदा कौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिखरजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। जिन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवीं रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करना आरम्भ कर दिया था।


णजीत मिंट तेतिन-अभियान


लाहौर की विजय (1799) : 1798 में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने लाहौर पर आक्रमण कर दिया और बड़ी आसानी से उस पर अधिकार कर लिया, परन्तु अपने सौतेले भाई महमूद के विरोध के कारण जमानशाह को शीघ्र ही काबुल लौटना पड़ा। लौटते समय उसकी कुछ तोपे झेलम नदी में गिर पड़े। रणजीत सिंह ने इन तोपों को सुरक्षित काबुल भिजवा दिया। इस पर जमानशाह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार कर लेने की अनुमति दे दी। अतः रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण किया और 7 जुलाई 1799 को लाहौर पर अधिकार कर लिया।


अन्य मिसलों पर विजय : शीघ्र ही रणजीत सिंह ने पंजाब के अनेक मिसलों पर अधिकार कर लिया। 1803 में उन्होंने अकालगढ़, 1804 में कसूर तथा झंग पर तथा 1805 में अमृतसर पर अधिकार कर लिया। अमृतसर पर अधिकार कर लेने से पंजाब की धार्मिक एवं आध्यात्मिक राजधानी रणजीत सिंह के हाथों में आ गयी। 1809 में उन्होंने गुजरात पर अधिकार किया। 


सतलज पार के प्रदेशों पर अधिकार : रणजीत सिंह सतलज पार के प्रदेशों को भी अपने आधिपत्य में लेना चाहते थे। 1806 में उन्होंने लगभग 20,000 सैनिकों सहित सतलज को पार किया और दोलाड़ी गाँव पर अधिकार कर लिया। पटियाला नरेश साहिब सिंह ने रणजीत सिंह की मध्यथस्ता स्वीकार कर ली और उसने बहुत-सी धनराशि भेंट की। लौटते समय उन्होंने लुधियाना को भी जीत लिया। 1807 में उन्होंने सतलज को पार किया और नारायणगढ़, जीरा बदनी, फिरोजपुर, आदि प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया।


आगे और-----