विश्व के महान् विजेता राजेंद्र चोल प्रथम

विश्व को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ बनायगे तथा तीनों लोक अपने ही देश हैं, आदि समानता के वैदिक मंत्र प्रारम्भ से ही भारतवासियों के पुरुषार्थ को प्रेरित करते रहे हैं। सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से भारतवासी सहस्रों वर्ष पूर्व से ही विश्व के देशों में जाते रहे और वहाँ भारतीय संस्कृति का सन्देश देते रहे हैं। महर्षि अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य और राजेन्द्र चोल आदि दिग्विजयी महापुरुष भारत के दक्षिणी भू-भाग के कुछ ऐसे श्रेष्ठ पुरुष हैं, जिन्होंने विदेशी भूमि पर भारतीय विजय-पताका फहराकर भारतीय सभ्यता- संस्कृति के प्रत्यारोपण के प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर दी और भारतीय संस्कृति का अमिट प्रभाव विश्व पर छोड़ा। इन्हीं दिग्विजयी पुरुषार्थी और पराक्रमी पुरुषों में से एक भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट पहचान रखनेवाले तमिळ चोल साम्राज्य के महान् शासक राजेंद्र चोल-प्रथम पहले भारतीय शासक थे, जिन्होंने भारत के वैभव को विदेशों तक विशेष पहचान दिलायी। चोल-साम्राज्य के काल में भारत एक बड़ी ताकत और सम्पन्नता के लिए पहचाना जाता था। यह सत्य है कि चोल साम्राज्य की महानता और वैभव को देश में अब तक अनदेखा किया जाता रहा है, लेकिन यही वह काल था जब भारत एक बड़ी सामरिक शक्ति तथा सम्पन्न राष्ट्र के रूप में चोल वंश के शासक राजेंद्र चोल- प्रथम के नेतृत्व में सम्पूर्ण भारत के साथ ही पूर्वी एशिया तक पहुँच गया था। यही कारण है कि विश्व के महान् विजेताओं में परिगणित राजेंद्र चोल-प्रथम के राज्याभिषेक के एक हजार वर्ष पूरे होने पर केंद्र की भाजपा सरकार को इसका स्मरण कर सहस्राब्दी-समारोह मनाने की घोषणा करनी पड़ी और देशवासियों को देश के समृद्ध इतिहास से अवगत कराने के लिए केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री को केंद्रीय विद्यालय संगठन को पत्र भेज चोल-वंश की परम्परा और साम्राज्य के बारे में कार्यक्रम आयोजित करने के लिए निर्देश देना पड़ा।



ध्यातव्य हो कि दक्षिण भारत के चोलसाम्राज्य के सबसे महान् शासक राजेंद्र चोल प्रथम, राजराजा चोल के पुत्र थे। राजेंद्र चोल-प्रथम ने बिहार और बंगाल के पाल वंश के राजा महिपाल को हराने के पश्चात् सुदूर दक्षिण से गंगा के मैदानों तक राज्य की सीमा हो जाने के कारण गंगेकौण्ड की उपाधि धारण कर गंगैकौण्ड (गंगई कोड़ा) चोलपुरम् नामक एक नयी राजधानी का निर्माण किया था। वहाँ उन्होंने एक शिव मन्दिर भी बनवाया था। अपनी राजधानी में उन्होंने एक विशाल कृत्रिम झील का भी निर्माण कराया जो सोलह मील लंबी तथा तीन मील चौड़ी थी। यह झील भारत के इतिहास में मानवनिर्मित सबसे बड़ी झीलों में से एक मानी जाती है। उस झील में बंगाल से गंगा का जल लाकर डाला गया। चोल सम्राट् राजेन्द्र स्वयं शैव थे, किन्तु भगवान् विष्णु तथा गौतम बुद्ध के अनेक मन्दिर उन्होंने बनवाये। उनके राज्य में प्रत्येक पंथ और सम्प्रदाय को राज्य से प्रश्रय मिलता था और उपासना-पद्धति की सम्पूर्ण स्वतंत्रता थी। वर्तमान में तमिलनाडु के त्रिची जिले के गंगकुंडपुरम् में इस प्राचीन विशाल नगरी के भग्नावशेष हैं। अपने शासनकाल में उन्होंने दक्षिण भारत में विकसित विशाल चोल साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत में किया था। राजेंद्र चोल-प्रथम के नेतृत्व में चोल साम्राज्य ने दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने राज्य क्षेत्र का विस्तार किया, जिनमें अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह, श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और इंडोनेशिया-जैसे देश शामिल थे। मध्ययुग के समय कई तमिळ-कवियों ने अपनी कविताओं में राजेंद्र चोल-प्रथम के सफल अभियानों का गुणगान किया था। उत्तर भारत में गंगा नदी तथा मलेशिया तक अपना शासन स्थापित करने के बाद, उन्हें गंगैकौण्ड (गंगईकोड़ान) चोल और काडारामकोड़ान की उपाधि से विभूषित किया गया था।


 आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व सातवाहनों के निर्बल होने के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों और पाण्ड्यों का प्रभुत्व हो गया। चोल-राजवंश उन दिनों पल्लवों के अधीन था तथा वर्तमान कुडप्पा जिले (तमिळनाडु) के क्षेत्र तक उनका शासन सीमित था, लेकिन नवीं शताब्दी के अंत में चोलों की शक्ति कुछ बढ़ने लगी। यह वह काल था जब पल्लवों और पाण्ड्यों के बीच चल रहे संघर्ष में दोनों कमजोर हो रहे थे और इसका लाभ उठाकर चोल शक्तिशाली हो रहे थे। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर विजयालय नाम के चोल-राजा ने अपनी स्थिति मजबूत की और उसके पुत्र आदित्य ने अपना स्वतंत्र चोल राज्य स्थापित कर लिया। आदित्य का पौत्र राजराज सन् 985 में चोल-वंश के पहले प्रतापी नरेश बने, जिन्होंने पहले तो पाण्ड्य राज और केरल के राजा को परास्त किया और फिर पश्चिमी गंगदेश (आज का आंध्र) को हराकर पूरे दक्षिण भारत में अपनी सत्ता सुदृढ़ कर ली। तत्पश्चात् उन्होंने अपनी शक्तिशाली नौसेना से सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का उत्तरी भाग जीत लिया। उनके पुत्र राजेन्द्रदेव चोल ने अपने पिता राजराज के निधन के बाद 1014 में चोल-साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली। राजेन्द्रदेव एक दूरदर्शी शासक थे, जिन्हें एक शक्ति-सम्पन्न भारत की आवश्यकता दिखलाई पड़ रही थी; क्योंकि उत्तर भारत में महमूद गज़नवी के आक्रमण प्रारम्भ हो चुके थे। इसके लिए उन्होंने चोल-साम्राज्य का विस्तार कर दक्षिणापथ को सैनिक दृष्टि से सुदृढ़ करने का कार्य आरम्भ किया। दूसरा काम उन्होंने राज्य को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करने का किया। आज के केरल, तमिळनाडू, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश तक तो चोल- साम्राज्य विस्तार पा ही चुका था, अब राजेन्द्र चोल ने कलिंग (ओड़ीशा) और बंगाल की विजय-यात्रा शुरू की। दोनों ही राज्यों ने राजेन्द्र की अधीनता स्वीकार कर ली। दक्षिण में उन्होंने सिंहलद्वीप (श्रीलंका) को पूरी तरह जीतकर भारत की दक्षिणी सीमा को पूरी तरह निरापद कर लिया। उनकी नौसेना अब तीनों सागरों (हिंदू, सिंधु और गंगासागर) में स्वच्छंद रूप से विचरण करने लगी।


आर्थिक मजबूती के लिए चोलराज ने अन्य देशों से व्यापार को बढ़ावा देने का निश्चय किया। उस समय चीन-जापान और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से भारत का अधिकतर व्यापार होता था। बहुमूल्य सामग्री से लदे जहाज गंगासागर (बंगाल की खाड़ी) और हिंदू महासागर को पार कर यवद्वीप (जावा) होते हुए लवद्वीप (लाओस), चम्पा (वियतनाम), कम्बुज (कम्बोडिया) के बन्दरगाहों पर माल उतारते थे। इसके बाद ये पोत चीन और जापान की ओर बढ़ जाते थे। इस समुद्री मार्ग की सुरक्षा के लिए राजेन्द्र देव ने अपनी नौसेना को और मजबूत किया और स्वयं लड़ाकू जहाजों पर सवार हो महासागरों को नापने के लिए निकल पड़े। इतिहासकारों के अनुसार, राजेन्द्र चोल के इस नौसैनिक अभियान की योजना अभूतपूर्व व अद्वितीय थी। प्राचीन भारत के तब तक के सबसे बड़े इस नौसैनिक अभियान का उद्देश्य अन्य देशों से भारत के व्यापारिक मार्ग को सुरक्षित करने के साथ ही वैदिक धर्म की विजय-पताका पुनः पूरे एशिया में फहराना था। दक्षिण-पूर्व एशिया के तत्कालीन श्रीविजय साम्राज्य के साथ चोल-राजवंश के मित्रता के सम्बन्ध थे, लेकिन वहाँ के सैनिकों ने भारत से माल लेकर आई कई नौकाओं को लूट लिया था। उसका दण्ड देने के लिये राजेन्द्र देव ने यह नौसैनिक अभियान प्रारम्भ किया था।


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