भारतीय संस्कृति में सुरक्षा-सम्बन्धी चिन्तन

सुरक्षा एक ऐसी अवस्था का नाम है। जिसके रहने पर ही कोई भी कार्य सम्पादित हो सकता है। इसका तात्पर्य अच्छी प्रकार से रक्षा है। भौतिक तात्पर्य अच्छी प्रकार से रक्षा है। भौतिक और मानसिक- दोनों अवस्थाओं की सम्यक् रक्षा ही वास्तव में सुरक्षा शब्द को चरितार्थ करती है। यह कार्य भी कठिन है; क्योंकि जो रक्षक होता है, (उसके पास बल और शस्त्र होने के कारण) उसके भक्षक भी बन जाने की प्रबल सम्भावना रहती है। कहा भी गया है 


नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां शृङ्गीणां तथा।


विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च॥


अर्थात् नदियों, शस्त्रधारियों, नखधारियोंशृङ्गधारियों, स्त्रियों और राजकुल के व्यक्तियों का विश्वास नहीं करना चाहिये।



राजतंत्र में सुरक्षा का दायित्व समाज का होता था। समाज के लोग आबालवृद्धवनिता- सबको अपना मानते थे। कोई भी प्राणी समाज की छत्रछाया में अपने को सुरक्षित महसूस करता था। धर्म, पुण्य, स्वर्गादि के प्रति सामाजिक चिन्तन में श्रद्धा और विश्वास के कारण व्यक्ति अपने दायिव का निर्वाह सम्यक् प्रकार से करता था। वह राष्ट्र की आन्तरिक सुरक्षा से लेकर बाह्य सुरक्षा के प्रति सर्वदा चिन्तित रहता था। जीवः जीवस्य भोजनम् की उक्ति को चरितार्थ करते हुए व्यक्ति ने जीवन के प्रारम्भिक काल में ही सुरक्षा के प्रति महत्त्वपूर्ण चिन्ताएँ व्यक्त की हैं। बृहत्तर भारत में न केवल मानव-सुरक्षा की बात कही गई है, अपितु प्रत्येक प्राणी की सुरक्षा को महत्त्वपूर्ण माना गया है। धर्मशास्त्रीय चिन्तन में धर्म, अर्थ और काम-संवर्धन के अन्तर्गत प्रत्येक प्राणी के लिए शान्ति और सुरक्षा प्रदान करने की चर्चा की गई है। सुरक्षा में राज्य की सीमा के साथ-साथ उसकी आन्तरिक सुरक्षा भी बहुत महत्त्वपूर्ण थी। अतः सप्तांग सिद्धान्त में राजा, मंत्रिपरिषद्, सेना, दुर्ग, अमात्य आदि परिगणित थे। मंत्रिपरिषद् के विस्तृत स्वरूप में युद्धमंत्री को ‘सेनापति’, ‘महाबला- धिकृत’, ‘महाप्रचण्ड-दण्डनायक', ‘सैन्यबलप्रधान', आदि नाम से कहा गया है। मंत्रिपरिषद् में परराष्ट्रमंत्री भी होता थाजो ‘महासंधिविग्राहक' के नाम से जाना जाता था। यह अन्य राज्यों से मैत्री और शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों को नियंत्रित करने का काम करता था।


आचार्य चाणक्य ने पृथिवी के प्राप्त करने और प्राप्त की रक्षा, अपने देश में कृत्य और अकृत्य पक्ष की रक्षा, राजपुत्र की रक्षा, शिल्पियों की रक्षा, व्यापारियों की रक्षा, दैवीय आपत्तियों का प्रतिकार, मृदाजीवियों से प्रजा की रक्षा, राजकीय विभागों की रक्षा आदि विषयों की ओर विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट किया है। क्षत्रिय के अध्ययन यजन, दान, शस्त्र से जीवन-निर्वाह तथा प्राणियों की रक्षा करना कर्त्तव्य हैं- क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्रजीवो भूतरक्षणं च (अर्थशास्त्र)अ राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा को धर्ममार्ग से भ्रष्ट न होने दें। वेदप्रतिपादित धर्म के द्वारा रक्षा की हुई प्रजा ही सदा सुखी रहती है। दण्डनीति सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। यह सबके योग और क्षेम की साधिका है। यह अप्राप्त की प्राप्ति करानेवाली, प्राप्त पदार्थों की रक्षा करनेवाली, सुरक्षित पदार्थों में वृद्धि करनेवाली तथा वृद्धि को प्राप्त हुए पदार्थों को उचित स्थानों में लगानेवाली है। क्रूर दण्ड देने से सभी प्राणी खिन्न हो जाते हैं। और दण्ड न देने से सभी प्राणी राजा का तिरस्कार कर देते हैं, अतः उचित दण्ड का विधान करना चाहिये। दण्ड का प्रयोग रोकने से बड़ी मछली जिस प्रकार छोटी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार बलवान् व्यक्ति निर्बलों को कष्ट पहुँचाने लगेगा। दण्ड के द्वारा सुरक्षित निर्बल भी सबल अथवा समर्थ हो जाता है। आज सबसे बड़ा प्रश्न सुरक्षा को लेकर उत्पन्न हुआ है; क्योंकि कानून की सख़्ती के बावजूद भी व्यक्ति अपने आपको हमेशा ही कानून से ऊपर समझने की भूल करता है। और यही बिडम्बना सम्पूर्ण विश्व में आतंकवाद को लेकर भी है; क्योंकि आज सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद से त्रस्त है। इस सुरक्षा में सबसे बड़ी बात यह निकलकर आती है कि समाज की सुरक्षा समाज के द्वारा ही होती है। समाज में आजकल असुरक्षा का भाव इसलिए भी है क्योंकि कोई भी परोपकार करना नहीं चाहता है; क्योंकि परोपकार करने से मिलनेवाले पुण्य के विषय में सबलोग अनभिज्ञ हैं। आज सभी यही जानने के लिए प्रयासरत रहते हैं कि क्या करने से क्या प्राप्त होगा। आधुनिक व्यक्ति की दृष्टि में परोपकार करने से प्राप्त तो कुछ होता नहीं है उलटे हमें कई बार परोपकार करने में अपना नुकसान उठाना पड़ता हैऔर अपना नुकसान कोई नहीं चाहता। जिस देश में तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः की भावना कूट-कूटकर भरी हो, उस देश की ऐसी दुर्गति देखकर दुःख होता है। यह असुरक्षा उस समाज के विचार के कारण है जिसे भारतीय संस्कृति के वास्तविक ज्ञान से वञ्चित रखने का प्रयास किया जा रहा है। आज हमें पदे-पदे चाणक्य की आवश्यकता है। यह भी बिडम्बना है कि प्राचीन काल में चाणक्य चन्द्रगुप्त हूँढ़ते थे और आज प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए चाणक्य ढूँढ़ता है। पारमेश्वरागम के मत में जिस प्रकार कामुक व्यक्ति का मन व्यभिचारिणी स्त्री में लगा रहता है और दरिद्र व्यक्ति का मन जैसे अकस्मात् प्राप्त खजाने में लगा रहता है, उसी प्रकार जिस व्यक्ति का मन अन्य सारे कार्यों से पृथक होकर केवल राष्ट्र की सेवा में लगा रहता है, वही सच्चा राष्ट्रभक्त है। जो व्यक्ति इस भक्ति से रहित होता है, उसके सम्पूर्ण प्रयत्न निष्फल होते हैं तथा उसे सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती।