भारतवर्ष की सामरिक बनावट

मेरी दृष्टि में भगवान् ने भारत को री दृष्टि में भगवान ने भारत को सामरिक देश के रूप में निर्मित । किया है। एशिया महादेश का यह मुकुटमणि है और इसके मध्य में स्थित है। यह विश्व के इतिहास को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह भागवती प्रकृति की। गोद में स्थित है। इसके उत्तर में तुषारमंडित नगराज हिमवान् अपनी भयावह ऊँचाई का अणुबम लिए प्रहरी के रूप में भारत की रक्षा के लिए सदा खड़ा रहता है। इतना ही नहीं, जाड़े और गर्मी में भी इस देश का परित्राण करता है। सामयिक वायु की गति को अवरुद्ध कर भारत में असीम वृष्टिवात कराता है। इसकी हिमराशि उत्तरापथ की नदियों को सदा जल से भरे रहती है। इस पर्वत से निकली हुई नदियों की धारा में, उनके जल में ओषधियाँ और उपजाऊ मृत्कण इस प्रकार मिले रहते हैं कि सभी तराइयाँ धन-धान्य से परिपूर्ण और शस्यश्यामला बनी रहती हैं। इस देश के तीन ओर नीलसागर लहराते हैं और अपनी उर्मिमालाओं से भारतमाता का पाद- प्रक्षालन प्रत्येक क्षण करते रहते हैं। देश के मध्य में विन्ध्य पर्वत विराजमान है, जिसने शताब्दियों तक दक्षिण की रक्षा विदेशी लुटेरों से की। पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट तथा अन्य पर्वत देश के दुर्ग या सिंजफ्रीड लाइन हैं। ध्वंसात्मक शस्त्रों के आविष्कार से पूर्व नदियाँ भी शत्रु के मार्ग में रोड़े अटकाती थीं। राजपुताने के मरुस्थल, विन्ध्यारण्य और ब्रह्मपुत्र आदि ने दुश्मनों के मार्ग में काँटे बिछा रखे थे।


इन प्राकृत मोर्चे को रखते हुए भी इस देश पर एक आक्रमण के बाद दूसरे आक्रमण होते रहे। विदेशी लुटेरों ने इसे शांति से प्राकृत वैभव का उपयोग नहीं करने दिया। इस देश के शस्यश्यामल क्षेत्र, इसके विविध भाँति के फल-फूल, इसके सुन्दर जीव-जन्तु, इसके स्वर्णादि धातु तथा हीरे-मोती और जवाहर विदेशियों के हृदय में सदा लूट-खसोट के भाव पैदा करते रहे। आज भी सारे विश्व की दृष्टि इसी पर लगी रहती है।



ऐसे देश के नगरों के निर्माण में सदा सामरिक भाव काम करते थे। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि महाजनपद की राजधानी के लिए आवश्यक है कि वह दो नदियों के संगमस्थल पर स्थित रहे। जहाँ संगमस्थल प्राप्त न हो सके, वहाँ राजधानी ऐसे जलाशय के तट पर स्थित हो, जहाँ का जल कभी नहीं सूखे। नगर के दुर्ग आयताकार, वृत्ताकार या समचतुर्भुजाकार हों। दुर्ग के चारों ओर कृमित्र नहर हो, जो स्थल और जलमार्गों से संयुक्त हो। प्रत्येक दुर्ग के चारों और तीन खाइयाँ हों। प्रत्येक खाई एक दूसरे से छह या छह से अधिक फीट की दूरी पर हो। प्रथम खाई 84 फीट चौड़ी और 18 से 30 फीट तक गहरी हो। तीसरी खाई 60 फीट चौड़ी और 15 से 30 फीट तक गहरी हो। खाई के तट पत्थरों तथा ईंटों के बने हों। इन खाइयों का ऐसे जलाशयों से सम्पर्क हो, जिनके जल का भण्डार अक्षय हो। खाई में घड़ियाल और कमल रहें।


सबसे भीतरी खाई से 24 फीट की दूरी पर 72 फीट चौड़ी और 36 फीट ऊँची चहारदीवारी बनाई जाय। प्राकार के बाहर चलने-फिरने के मार्ग बंद रहें और पग-पग पर रुकावटें जानुभंजनी (नी-ब्रेकर), काँटे तथा सर्पाकार हथियार के रूप में, स्थित हों। (कौटलीयअर्थशास्त्र, अध्याय 3)।


भारत के प्राचीन नगर प्रायः इसी प्रकार बने थे। पुष्कलावती, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज, आगरा, कौशाम्बी, अयोध्या, प्रयाग, शृंगवेरपुर (मिर्जापुर), काशी, बक्सर, पटना, मुंगेर, भागलपुर आदि प्राचीन नगर हैं। सभी नदी-तट पर अवस्थित हैं। प्रत्येक घाट और मार्ग पर रोक रहा करती थी। पुरातन युग में स्थल की अपेक्षा नदी, यातायात के लिए अति सुगम थी। सामुद्रिक कप्तान डेरियस ने काबुल नदी के उद्गम-स्थल से सिंधु नदी के मुख तक जल-यात्रा ही की थी। सिकन्दर ने भी झेलम से सिंधु के मुख तक आठ सौ नावों पर ससैन्य जल-मार्ग से ही यात्रा की थी। नदी का महत्त्व मोर्चे की नज़र से बहुत बढ़ा-चढ़ा था। पुरातन काल में सड़कें नदी के तट से ही होकर जाती थीं। पहाड़ों के बीच भी मार्ग बने रहते थे। वसिष्ठ ने जो संदेश राजा दशरथ की मृत्यु के पश्चात् भरत के पास भेजे थे, वे नदी-तट तक प्रसृत पर्वतों को देखते हुए जा रहे थे। भरत उस समय केकयराज्य में थे।


(वाल्मीकीयरामायण, अयोध्याकाण्ड, 68.19-22)। पंजाब के गुजरात, शाहपुर तथा झेलम जिलों का विस्तार केकय-राज्य का विस्तार था। वे दूत वस्तुतः गंगा और यमुना के उपरि भाग होकर गये थे और उनके मार्ग में हस्तिनापुर पड़ा था।


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