भारतीय विदेश नीति का स्वरूप

प्रत्येक कमजोर राष्ट्र को अपने से मज़बूत राष्ट्र की ओर से आक्रमण एवं युद्ध, राष्ट्रीय विघटन, व्यापारिक ध्रुवीकरण, अर्थव्यवस्था पर परोक्ष नियंत्रण, विस्तारीकरण योजना, आंतरिक अस्थिरता पैदा करने, अपने देश का रहन-सहन, सामाजिक सोच एवं धार्मिक सभ्यता थोपने आदि का भय बना रहता है। इसी प्रकार मजबूत राष्ट्र को अपने आस-पास के कमजोर और छोटे राष्ट्र से परोक्ष आंतरिक * अस्थिरता, शत्रु-राष्ट्र के साथ मित्रता, कमजोर राष्ट्रों के परस्पर आर्थिक, व्यापारिक एवं सामरिक एकीकरण, बराबरी करने के लिए शक्ति बढ़ाने के गोपनीय प्रयास, राष्ट्रीय विघटन के अपरोक्ष प्रयास, अटपटे आर्थिक सहयोग की मांग, नुकसानदायक मध्यस्थता का आग्रह, पड़ोस में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के उपक्रमों आदि का भय बना रहता है।



विभिन्न देशों के बीच परस्पर संबंधों को चार प्रमुख भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है : 1. विदेशी राष्ट्रों से संबंध बनाकर देश की अर्थव्यवस्था एवं सम्मान बढ़ाने संबंधी क्रियाकलाप, 2. आस-पास के कमजोर राष्ट्रों को अपने अधीन करने के क्रियाकलाप ताकि भविष्य की चुनौतियों को समाप्त किया जा सके और बड़े राष्ट्रों का सामना करने में आसानी हो, 3. प्रबल राष्ट्रों की विस्तारीकरण की नियत से अपनी सीमाओं की रक्षा करने संबंधी क्रियाकलाप एवं 4. अपने देश की धार्मिक, सामाजिक तथा रहन-सहन की शैली को दुनिया के देशों में फैलाते हुए उन्हें अपना अनुयायी बनाने संबंधी क्रियाकलाप, ताकि देश की धार्मिक संस्थाएँ खुश हो जाएँ और दूसरे देशों द्वारा हमारे साथ ऐसा किए जाने की संभावना भी कम एवं समाप्त हो जाए।


युद्ध एवं झगड़ों से उत्पन्न स्पर्धा के कारण किसी भी देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाती है तथा जन-धन की हानि के साथ-साथ विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। इन बातों के महत्त्व को देखते हुए विभिन्न देशों के साथ खूब सोच-विचारकर व्यवहार करना जरूरी होता है।


विभिन्न राष्ट्रों के साथ मित्रवत्सौहार्दपूर्ण, सहयोगात्मक, विश्वसनीय एवं राष्ट्रीय आत्मसम्मानयुक्त संबंध बनाए रखते हुए राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए आवश्यक समस्त व्यवहार, उपाय तथा योजनाओं को विदेश-नीति कहा जा सकता है।


प्रमुख पारंपरिक विदेश-नीतियों का परिचय


विभिन्न राष्ट्रों की यह सार्वकालिक इच्छा रही है कि अपने आस-पास के देशों को अपने अधीन कर लिया जाए, यदि पड़ोसी देश कमजोर है, तो खुली रणनीति से और यदि पड़ोसी देश मजबूत है तो कूटनीति से। यदि पड़ोसी राष्ट्र कमजोर है और उसे प्रत्यक्ष रणनीति से अपने अधीन करना संभव नहीं दिखाई दे रहा हो तो परोक्ष नीति अपनाकर उसे तोड़ने एवं कमजोर करने का प्रयास करना चाहिये। यदि पड़ोसी राष्ट्र मजबूत है। और उसे किसी भी प्रकार अपने अधीन करना संभव नहीं दिखाई दे रहा हो, तो उसे उचित अवसर आने तक खुश रखकर मित्र बनाने के प्रयास करने चाहिए, ताकि वह आपको अपने अधीन करने का विचार न कर पाये।


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