घी के दिए जलाऊँगी मैं...

उस दिन दीवाली थी। चारों ओर खुशी और उल्लास का वातावारण था। सभी 'घरों में पुताई-सफाई का कार्य लगभग पूरा हो चुका था। बाजारों में भी अच्छी-खासी भीड़ थी। गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों की दुकानों पर तो रौनक-ही-रौनक थी।


सरिता भी अपने घर को विशेष रूप से सजा-सँवार रही थी। आँगन के बीचों-बीच उसने विभिन्न रंगों से सजाकर रंगोली बनाई थी। इतनी प्यारी रंगोली बनाना उसने अपनी सहेली प्रीति से सीखा था। आज उसके प्यारे भैया महेन्द्र भी दिल्ली से आनेवाले थे। महेन्द्र भैया सेना में बड़े अधिकारी थे। होली, दीवाली या फिर किसी अन्य विशेष कार्यक्रम में ही घर आ पाते थे। हर साल जब दीवाली । पर भैया दिल्ली से आते, तो सरिता के लिएखूब सारे पटाखे और उपहार लाते थे। सरिता की विशेष पसन्द घाघरा वाली फ्रॉकें थीं। परन्तु महेन्द्र भैया के द्वारा लाई गई फ्रॉक की बात ही कुछ और थी।



धीरे-धीरे शाम होने लगी थी। सरिता ने पूजा की सारी तैयारियाँ कर ली थीं। दीपकों में तेल और रूई की बाती भी डाल दी थी, परन्तु महेन्द्र भैया अभी भी नहीं आए थे। सरिता का मन अब किसी भी काम में नहीं लग रहा थाजरा-सी भी आहट होती तो वह दरवाजे की ओर दौड़ती, लेकिन दरवाजे पर किसी को भी न पाकर मायूस होकर लौट आती। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आज भैया क्यों नहीं आए। ऐसा तो इससे पहले कभी नहीं हुआ था। उसके मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगी थीं। ‘यदि भैया को नहीं आना था तो कम-से-कम एक फोन तो कर ही सकते थे.....।' वह जितना सोचती, उतना ही उसका मन और दुःखी हो जाता। धीरे-धीरे उसकी रुलाई छूटने लगी थी।


गए. भैया आ गए...।'' चिल्लाती हुई सरिता दरवाजे की ओर भागी। उसने जैसे ही दरवाजा खोला, तो चार-पाँच लोगों को सामने पाकर आश्चर्यचकित रह गयी। शायद वे लोग सेना के अधिकारी थे क्योंकि जैसी वर्दी भैया पहनते थे वैसी ही वर्दी वे लोग भी पहने थे। वह कुछ बोलती, उससे पहले ही उनमें से एक व्यक्ति बोला- "बेटी, क्या महेन्द्र जी का घर यही है?''


“जी हाँ, महेन्द्र भैया का घर यही है। मैं कितनी देर से उनका इन्तजार कर रही हूँ। मैं उनकी छोटी बहन हूँ। परन्तु आपके साथ भैया क्यों नहीं आए? आप भी तो उन्हीं के दोस्त हैं? उन्हीं के साथ काम करते हैं न? क्योंकि आप भी वैसी ही वर्दी पहने हैं जैसी मेरे भैया पहनते हैं।' सरिता ने एक साथ कई प्रश्नों की बौछार कर दी।


लेकिन उन्होंने सरिता के प्रश्नों का कोई उत्तर उत्तर न देकर धीरे से उससे पूछा- “माँ और पिताजी घर पर हैं? जरा उन्हें बुला दो।''


उनकी बात सुनकर सरिता वहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े ही चिल्लायी- ‘‘माँ, देखो महेन्द्र भैया के दोस्त आए हैं। तुम्हें बुला रहे हैं।''


सरिता की आवाज़ सुनकर रसोई से महेन्द्र के मनपसन्द रसगुल्ले बना रही माँ तेजी से अपनी साड़ी के पल्लू में हाथ पोछती हुई दरवाजे की ओर लपकीं। दरवाजे पर पहुँचकर उन्होंने सेना के चार नौजवानों को खड़े देखा तो मन आशंका से भरा उठा। अभी वह कुछ बोलतीं, उससे पहले ही एक नौजवान ने अभिवादन करके एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया।


‘‘क्या है यह? आप लोग कुछ बोलते क्यों नहीं? मेरा महेन्द्र क्यों नहीं आया आपके साथ?'' माँ लगभग आँसी होकर बोली। 


“जी...जी...वह...महेन्द्र...।' नौजवान न ने कुछ कहना चाहा, लेकिन आवाज़ गले में ही अटक गयी।


“हाँ-हाँ... कहो न... कहाँ है मेरा महेन्द्र? क्यों नहीं आया वह? क्या वह...? क्या वह भूले। भूल गया कि उसकी बहन सरिता उसका इन्तज़ार करती है हर दीवाली पर?''


“जी...महेन्द्र जी अब आपके पास कभी न नहीं आएँगे। आतंकवादियों के साथ जंग में उन्हें, उनके दल के साथ दुश्मनों को मार भगाने के लिए भेजा गया था। जिस चौकी को उन्हें दुश्मनों से खाली कराना था, वह तो उन्होंने तथा उनके दल ने खाली करवा ली, परन्तु भागते हुए दुश्मनों ने उन पर जबरदस्त गोलीबारी करके उनके शरीर को छलनी कर दिया। मरते दम तक महेन्द्र जी ने भागते हुए उन दुश्मनों को भी बम के गोले फेंककर मार डाला।'' कहते-कहते नौजवान की आवाज़ लड़खड़ाने लगी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। कुछ क्षण रुककर उसने फिर कहा, “महेन्द्र जी का पार्थिव शरीर कल दोपहर तक आपके निवास पर आ जाएगा। हम लोगों को यही सूचना देने के लिए आपके पास भेजा गया है।'' कहकर वे नौजवान माँ को प्रणाम करके चले गये।


नौजवानों की बाते सुनकर माँ तो जैसे पत्थर की मूर्ति बन गई थीं। अभी नौजवानों ने जो भी कहा, उस पर उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था। तभी माँ का चेहरा देखकर सरिता ने उन्हें झकझोरते हुए कहा, “माँ, कहाँ खो गयी? भैया अब नहीं आएँगे माँ, वह तो अपनी भारत माँ की रक्षा करते-करते भगवान के पास चले गए। चलो माँ...अन्दर चलो..''


सरिता के हिलाने से माँ की जब तन्द्रा भंग हुई तो वह दहाड़ मारकर रोने लगी। तभी पिताजी भी आ गये। उन्होंने सरिता द्वारा माँ से कही गई सारी बातें सुन ली थीं। उनकी सब समझ में आ गया था। इससे पहले कि पिताजी कुछ कहते, सरिता गर्व से बोली- “माँ, आज तो मैं घी के दीए जलाऊँगी। मेरे प्यारे भैया ने अपनी भारत माँ की रक्षा के लिए अपने प्राण खोए हैं। हमें रोकर उनका अनादर नहीं करना चाहिए। मैं इसलिए दीए जलाऊँगी क्योंकि मेरे भैया ने देश की धरती को दुश्मनों के कब्जे से छुड़ा लिया। क्यों माँ, मुझे थोड़ासा घी दोगी न?''


सरिता की बातें सुनकर माँ की सिसकियाँ और बढ़ गयीं। रोते हुए वह बोली, “सच मेरी गुड़िया, तेरा भैया मरा नहीं है। वह तो शहीद हो गया है। मेरे लाल ने अपनी धरती को दुश्मनों के कब्जे से छुड़ाकर हम लोगों के नाम को सारे देश में रोशन कर दिया है। मैं तुझे घी अवश्य देंगी, भैया की विजय की खुशी मनाने के लिए। उसकी विजय ने सारे देश को इतना रोशन कर दिया है कि दीवाली की रोशनी भी फीकी पड़ गई है।'' यह कहते हुए उन्होंने सरिता को अपने आँचल में छिपा लिया।