हिंदी का कीर्तिशेष पत्र सौरभ

भारतमाता के माथे की बिंदी, हिंदी के विकास में जिन पुरानी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का योगदान रहा है, उनमें ‘सौरभ समाचार पत्र के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इसके संपादक पं. रामनिवास शर्मा का प्रमुख उद्देश्य हिंदी को गौरव प्रदान करना तथा स्वतन्त्र आदर्शवाद का प्रचार करना था। यद्यपि ‘सौरभ' का जीवनकाल कम रहा, तथापि हिंदी-पत्रकारिता की जिन ऊँचाइयों को छूने में उसने सफलता प्राप्त की, वह देश की बहुत ही कम पत्रिकाओं को मिल पायी। यही कारण है कि 'सौरभ' की प्रतियाँ आज भी देश की हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के लिए प्रासंगिक हैं।



‘सौरभ' का प्रथम प्रकाशन 1920 ई. में तत्कालीन राजपुताने की सबसे छोटी और कम आयु की रियासत झालावाड़ से यहाँ के एक हिंदीसेवी विद्वान् पं. रामनिवास शर्मा के सम्पादकत्व में हुआ था। झालावाड़ राज्य के साहित्यिक-अभिरुचि के तत्कालीन शासक महाराज भवानी सिंह के संरक्षण में प्रकाशित यह पत्र अपने प्रवेशांक से ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 'सरस्वती' की टक्कर का माना गया था। ‘सौरभ' में उस समय देश के प्रख्यात साहित्यकारों- पं. रामनरेश त्रिपाठी, मिश्रबन्धु, डॉ. सम्पूर्णानन्द, मुंशी देवीप्रसाद, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', आत्माराम, पं. हरिशंकर भट्ट, केसरी सिंह बारहठ, पं. पदमसिंह शर्मा, पं. प्यारेलाल शर्मा-जैसे प्रकाण्ड विद्वानों की रचनाएँ स्थान पाती थीं। स्वयं सम्पादक पं. रामनिवास एक स्थापित साहित्यकार, पत्रकार और चिन्तक थे। उन्होंने साहित्य, भाषा, स्वतन्त्रता, ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, पुरातत्त्व व लोकहित आदि अनेक विषयों पर मौलिकता और गवेषणा के साथ कलम चलायी। इस प्रकार गम्भीर अध्ययन-चिन्तनवाली रचनाएँ प्रकाशित करना सौरभ का मुख्य उद्देश्य था। इन्हीं कारणों से ‘सौरभ प्रवेशांक से ही देशभर में प्रसिद्ध हो गया था।


‘सौरभ' में आलेखों के अलावा नीतिविषयक, शिक्षात्मक तथा महापुरुषों की प्रशस्तिपरक कविताएँ भी लगातार प्रकाशित होती थीं। इनमें छन्दों के पुराने ही प्रयोग मिलते हैं। ‘सौरभ' में लोकहित के विविध विषयों के लेखों में कहीं भी भाषा का स्वरूप दुरूह नहीं होता था। खिचड़ी भाषा से यह पत्र सर्वथा दूर रहा। यदि इसमें कविता भी प्रकाशित होती थी तो उसकी भावभूमि सदैव राष्ट्रीय होती थी।


‘सौरभ' के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए उसके प्रवेशांक में ही विद्वान् सम्पादक ने अपने सम्पादकीय में लिखा था- ‘सामयिक प्रचलित आन्दोलन में इस प्रकार का साहित्य उत्पन्न किया जाये जिसे पढ़कर लोग इस आन्दोलन के स्वतन्त्र आदर्शवाद को इस दर्जे तक समझ सकें कि वे दूसरों के भी सच्चे मार्गदर्शक बन सकें।।


संपादक के मन में उक्त सामाजिक आन्दोलन से आम जनता को जोड़ने की अभिलाषा के साथ-साथ उनके मन में नौनिहालों में देशहित के भाव भरने की भी प्रबल इच्छा थी। ‘सौरभ' के माध्यम से उन्होंने अपनी इच्छा इस प्रकार रेखांकित की- 'जाति के बालकों की तथा उसके अंगों की भी प्राकृतिक, आध्यात्मिक शाक्तियों के विकास, उनमें आविष्कार की शक्ति की जागृति के उपायों, उनके सामुख्य में विजयी होने के समुचित साधनों पर पूर्णतः प्रकाश डाला जाय।'


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