क्या सीमाएँ टूटेंगी?

जब बादलों का एक झुंड, दूर किसी देश से आकर पानी बरसा जाता है, तो मन आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता है। मौसम आने पर हजारों मील दूर से तरह-तरह के पक्षी, प्रवास के पलों का भरपूर आनन्द लेने, दुनिया के किसी भी कोने में चले जाते हैं। हवाएँ किसी से नहीं पूछतीं कि वह आए या रुक जाए। इन सब बातों को देखकर लगता है कि हम मनुष्य कितने बेबस हैं। हम कई तरह की सीमाओं में बँधे हैं। क्या ऐसी सीमाएँ केवल हम मनुष्यों के लिए हैं? प्रकृति ने अपने हिसाब से सीमाएँ अवश्य बनाई हैं, परंतु उनका निर्धारण बड़े सुंदर तरीके से किया है। जबकि मनुष्य की बनाई गई सीमाएँ थोड़ी जटिल होती हैं, चाहे वह किसी राज्य की सीमा हो या किसी राष्ट्र की। इसमें कोई शंका नहीं है कि ये भौगोलिक सीमा-रेखाएँ आवश्यकताओं के कारण उत्पन्न हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी; क्योंकि मनुष्य के आस-पास की वस्तुओं, घटनाओं और आनेवाले संकटों के हिसाब से उसकी आवश्यकताएँ समय के साथ निरंतर बदलती रहती हैं।


कभी ऐसा समय भी रहा होगा जब इस धरती के मानचित्र पर किसी देश की सीमारेखा न रही होगी। परंतु एक समय आया होगा, जब लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र का निर्धारण किया होगा। यह सोचनेवाली बात है कि क्षेत्रों का निर्धारण और इन्हें सीमांकित करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? बहुत हद तक यह जंतुओं का एक प्राकृतिक गुण है कि वह अपने आपको सुरक्षित और संतुष्ट रखना चाहता है। वह अपने आस-पास उपलब्ध स्रोतों को किसी के साथ बाँटने में संकोच करता है। उसे भय होता है कि उसे उपलब्ध संसाधन, अन्य लोगों द्वारा निरंतर उपभोग किए जाने के कारण, कहीं समय से पहले न समाप्त हो जाए। आप यदि गंभीरता से विचार करें, तो पाएँगे कि यह प्रवृत्ति न केवल मनुष्य में बल्कि जानवरों में भी पाई जाती है। जानवर भी जंगलों में अपने-अपने इलाके का अपने-अपने तरीके से निर्धारण करते हैं। और उन क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उनमें भी यह भय रहता है कि उनके लिए उपलब्ध भोजन और सुरक्षित जगह, किसी दूसरे जानवर के कब्जे में न चली जाए।



तो हम बादलों, हवा और पक्षियों को देखकर कितना भी कवि की भावना से क्यों न भर उठे, इस सच से विमुख नहीं हो सकते हैं कि ये सीमा-रेखाएँ हमारी व्यावहारिक आवश्यकताएँ भी हैं और प्राकृतिक स्वार्थ भी। आज सम्पूर्ण पृथिवी पर हर राष्ट्र अपने आपको सुरक्षित रखने कीहरसंभव कोशिश में लगा है। जंगल में जानवरों की सीमा-रेखाएँ उस तरह से सुदृढ़ नहीं होती जैसा मनुष्यों ने अपने लिए बनाई हैं। ऐसी सीमा-रेखाएँ, जितनी हमें सुरक्षित रखती हैं, उतनी ही हमें वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा से अलग करती हैं। इस दर्द को वही समझ सकते हैं जिनके परिवार के लोग विभाजन का दंश झेलते दो अलग-अलग राष्ट्रों में रह रहे हैं। परंतु आज के दौर का यही सच है। यदि पूरे विश्व के सभी महत्त्वपूर्ण देशों के सुरक्षा-संबंधी व्यय का विवरण निकाला जाए, तो आपको अनुमान होगा कि कितना अधिक धन राष्ट्रों की सुरक्षा में खर्च हो रहा है। यह धन इतना अधिक है कि कम-से-कम पाँच छोटे देशों का सालाना खर्च वहन किया जा सकता है।


यदि भारतवर्ष के आरम्भिक समय की बात करें, तो भारत देश का व्यापार कई देशों के साथ था। लोग निरंतर एक दूसरे के देशों में व्यापार के उद्देश्य आते-जाते थे। उस समय राष्ट्र की सीमाओं को लेकर इस तरह की जटिल पाबन्दियाँ नहीं थीं। उस समय न तो पासपोर्ट हुआ करता था और न ही किसी देश में जाने के लिए वीजा लेने की आवश्यकता होती थी। हाँ, जो व्यावहारिक औपचारिकताएँ थीं, वे निभानी पड़ती थीं। परंतु, जब स्थानीय लोगों या शासक द्वारा उस कार्य के लिए नियुक्त किसी व्यक्ति का, किसी व्यापारी या व्यापारियों के समूह पर विश्वास सुदृढ़ हो जाता था, तब वे औपचारिकताएँ भी समाप्त हो जाती थीं। प्रारम्भ में सब कुछ ठीक था, परंतु बाद में उन व्यापारियों के साथ छद्म वेश में कुछ ऐसे लोग भी आने लगे, जिनकी नीयत अच्छी नहीं थी। उनमें से कई लोग चोर और लुटेरे भी हुआ करते थे। 


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