पं. उदयशंकर का नृत्य-संसार

सत्रह फरवरी, 1941 को ताजनगरी आगरा के प्रसिद्ध नृत्य हॉल में दर्शक भव्य रंगमंच की ओर टकटकी लगाए बैठे थे। समय था संध्या का। धीरे-धीरे रंगमंच से पर्दा उठा और संगीत स्वर लहराया तो भारतीय संस्कृति की सजी-सँवरी पोशाक में एक कालेकेशी गौरवर्ण देवरूपी पुरुष ने मंच से सबको साष्टांग प्रणाम किया, तब उसे देखते ही पूरा हॉल देशी-विदेशी नृत्यप्रेमी दर्शकों की करतल ध्वनि से गूंज उठा। संगीत का स्वर धीरे-धीरे मध्यम गति से लहराया और फिर वह देवरूपी पुरुष नृत्य की लहराती ताल पर थिरकने लगा। उसके शिव ताण्डव, इन्द्र और कार्तिकेय एकल नृत्य की गति के साथ ही नृत्य-मिश्रित ध्वनि भी बिखरने लगी तो चारों और शान्ति छा गयी। मंच की भव्यता, प्राचीन भारतीय संस्कृति-संगीत की मुखरता और उस नृत्य-साधक की नृत्य-प्रवीणता के मिश्रण में दर्शक उसके स्वप्निल-सम्मोहक नृत्य-संसार में स्वयं को भुला बैठे और ठीक दो घण्टे बाद नृत्य उपरान्त फिर बजी देर तक तालियाँ।



यह नर्तक थे- भारतीय नृत्यकला के महान् कला साधक पं. उदयशंकर, जिन्होंने बाल्यावस्था से अन्तिम समय तक अपनी नृत्यकला से संसार को चकित कर दिया था। उनकी कला-साधना आज भी नृत्य- जगत् में बेजोड़ है। नृत्यकार पं. उदयशंकर एक ऐसे चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी थे कि जो भी उनके सम्पर्क में आया, उसमें भारतीय होने के गर्व के साथ-साथ कला का स्फुरण भी हुआ। उनकी नृत्य-शैली आज भी विश्वभर में सम्मान के साथ स्मृत की जाती है।


झालावाड़ से उदय


उदयशंकर का जन्म 08 दिसम्बर, 1900 को झीलों की नगरी उदयपुर में हुआ था। उनके पिता पं. श्यामाशंकर, मेवाड़ रियासत के दरबारी थे। बचपन से ही उदयशंकर को संगीत व चित्रकारी से बेहद लगाव था। कलाप्रिय माँ हेमांगना देवी उन्हें चुपके- चुपके संगीत, चित्रकारी में दरबारी कलाविदों द्वारा प्रशिक्षित करवाती थीं। इसी समय उनके पिता को राजपुताना की अन्य रियासत झालावाड़ में दीवान के पद पर आना पड़ा और यहीं पर उदयशंकर का बचपन व किशोरावस्था बीता। यहीं से उन्होंने अपने नाम को सार्थक करते हुए कालान्तर में भारतीय नृत्य में एक नितान्त भव्य शैली का उदय किया जिसे ‘ओरियण्टल डांस' के नाम से जाना गया। झालावाड़ के तत्कालीन महाराज राणा भवानी सिंह बड़े ही कलाप्रिय, विद्वान् तथा कलाकारों के पारखी थे। उन्होंने बालक उदयशंकर की अन्तर्निहित जिज्ञासा देखकर उसको विशेष प्रोत्साहन दिया जिससे आगे चलकर उदयशंकर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। एक पुख्ता प्रमाण के अनुसार पं. शंकर की पत्नी अमला शंकर ने एक साक्षात्कार में यह बताया था कि पं. उदयशंकर के बाल-हृदय में प्रथम बार नृत्य की कला का प्रस्फुटन झालावाड़ राज्य के ड्ग क्षेत्र के कंजरी नृत्य' को देखकर हुआ था और पं. शंकर ने अपने नृत्य का प्रथम प्रदर्शन अल्पायु में ही झालावाड़ की राजसी श्री भवानी नाट्यशाला में किया था। उल्लेखनीय है कि झालावाड़ नगर में स्थित भवानी नाट्यशाला राजराणा भवानी सिंह द्वारा निर्मित ओपेरा (पारसी) शैली की प्रसिद्ध नाट्यशाला रही है और आज भी अपनी भव्यता के कारण विख्यात है।


यहीं से पं. उदयशंकर का उदय हुआ। वह झालावाड़ के अलावा गाजीपुर और बनारस में भी रहे, जहाँ चित्रकारी में उनकी रुचि रमती रही, जिसके परिणामस्वरूप झालावाड़ महाराजराणा ने उन्हें चित्रकला के प्रशिक्षण हेतु बम्बई के जे.के. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स भेज दिया। वहाँ वे कला के साथ-साथ गन्धर्व विद्यालय से संगीत की शिक्षा भी ग्रहण करते रहे।


झालावाड़ रियासत के खर्चे, वजीफे पर ही वह चित्रकला का अभ्यास करने के लिए 1920 में लन्दन की 'रॉयल अकादमी ऑफ़ आर्ट्स गये। वहाँ वह पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत हो उठे, तभी उनके शिक्षक विलियम रोथेन्स्टाइन (1872- 1945) ने उनसे कहा- ‘पहले अपने देश के गौरव और संस्कृति को पहचानो' ।


चित्रकार से नृत्यकार


शिक्षक के इस वाक्य ने पं. उदयशंकर के जीवन में अंतर्द्वन्द्व आरम्भ कर दिया कि वह चित्रकला सीखें या नृत्य; क्योंकि उनके भीतर नृत्य के संस्कार भी तो विद्यमान थे। तभी उनकी दृष्टि आनन्द कुमारस्वामी (1877-1947) की लिखी पुस्तक 'द डांस ऑफ़ शिव' (1918) के मुखपृष्ठ पर छपी ‘नटराज शिव की प्रतिमा पर पड़ी, तो उनका पुनः उनके अन्तर छिपा नर्तक जाग्रत् हो उठा और अन्ततः नर्तक और चित्रकार में नर्तक की ही विजय हुई। इसी से प्रेरित हो बाद में उन्होंने शंकर-नृत्य' की रचना की थी। इस नृत्य में उनकी पत्नी अमला शंकर (अमला नन्दी) पार्वती के रूप में नृत्य करती थीं।


 


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