प्राचीन भारत मे रक्षा एवं रणकौशल

वैदिक युग से ही प्राचीन भारतीयों ने रक्षा एवं रणकौशल में अपनी योग्यता प्रदर्शित की है। अथर्ववेद में किलेबन्दी और लोहे से बने मुख्यद्वारों से नगरों की सुरक्षा का वर्णन आता है। ऋग्वेद-काल से ही प्राचीन भारतीयों ने रणक्षेत्र में रथों का कुशल प्रयोग सीख लिया था। यजुर्वेद में रथ बनानेवाले रथकारों की श्रेणी का वर्णन मिलता है। त्वरित गति से शत्रुसेना पर शस्त्रों द्वारा आक्रमण करने में रथों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती थी। जिसके पास जितने अधिक रथ होते थे, वह उतना ही शक्तिशाली राजा होता था। यही कारण है कि शक्तिशाली राजा को महारथी कहा जाता था। 


दाशराज्ञ-युद्ध में भरत-वंश के उत्सु- शाखा के राजा सुदास के विजयी होने में वसिष्ठ ऋषि की कुशल रणनीति और रथों की प्रमुख भूमिका थी। वैदिक युग से लेकर महाभारत काल तक रथ पर आरूढ़ धनुर्धारी योद्धाओं ने रणभूमि पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा। यही कारण है कि प्राचीन भारत का प्रथम युद्धविषयक ग्रन्थ धनुर्वेद ही है। यद्यपि परशु इत्यादि शस्त्रों के होते हुए भी प्राचीन भारतीय योद्धाओं ने धनष-बाणों के प्रयोग को ही अधिक महत्त्व दिया है। इसका प्रमुख कारण यह हो सकता है कि भारतीय योद्धाओं के लिए शत्रु को घायल कर हराना लक्ष्य होता था न कि क्रूरतापूर्वक शत्रु की हत्या करना।



सप्तसिंधु क्षेत्र नदीबहुल होने के कारण युद्ध की स्थिति में नौकाओं का प्रयोग अत्यावश्यक होता था। वैदिक युग से ही प्राचीन भारतीयों ने नौका-निर्माण में कुशलता प्राप्त की थी। सैनिकों के यातायात, रसद एवं युद्ध-सामग्री पहुँचाने के लिए अधिकाधिक नौकाओं का अधिपति होना वैदिक युग के राजा के लिए अनिवार्य था। रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक नौसेना का प्रमुख कार्य-युद्ध के संसाधनों का प्रबन्धन होता था। महाभारत में यंत्रयुक्त एवं पताकिनी नौकाओं का वर्णन मिलता है।


सम्भवतः रामायण काल के बाद युद्ध में हाथियों का कुशल प्रयोग सर्वप्रथम भारतीयों ने ही किया था। पदति सेना में भय उत्पन्न करने के लिए मदमस्त हाथियों की सेना रखना आवश्यक हो गया था। इस प्रकार रामायणकालोत्तर राजाओं के लिए चतुरंग (रंग, पदति, अश्व और गज) सेना का प्रधान सेनापति होना उनकी शक्ति का सूचक था।


रामायण और महाभारत काल में रणक्षेत्र में व्यूह-संरचना का विकास होने लगा। इन व्यूह-संरचनाओं में निम्न सत्रह व्यूह प्रमुख हैं :


1. चक्रव्यूह 2. क्रौञ्चव्यूह 3. मकरव्यूह 4. कूर्मव्यूह 5. त्रिशूलव्यूह 6. पद्मव्यूह 7. गरुडव्यूह 8. ऊर्मिव्यूह 9. मण्डलव्यूह 10. वज्रव्यूह 11. शकटव्यूह 12. असुरव्यूह 13. देवव्यूह 14. सूचीव्यूह 15. शृंगाटक व्यूह 16. चन्द्रकला व्यूह 17. मालाव्यूह


महाभारत काल के बाद रथारूढ़ धनुर्धारी योद्धाओं से अधिक अश्वारूढ़ खड्गधारी योद्धाओं का महत्त्व बढ़ने लगा। इसका मुख्य कारण यह है कि योद्धा धातु से बने कवच पहनने लगे जिसके कारण धनुष-बाण प्रभावहीन हो रहे थे। रणक्षेत्र में धनुष-बाणों के स्थान पर तलवारों का दबदबा निरन्तर बढ़ रहा था। तलवर बनाने के लिए उत्तम स्टील की आवश्यकता होने लगी। प्राचीन भारतीय, धातुविज्ञान में भी अग्रणी थे। उन्होंने एक ऐसे स्टील (वुट्ज़ स्टील) का आविष्कार किया जिसके बने हुए तलवार युद्ध में लम्बे समय तक अपनी धार बनाए रख पा रहे थे। इसी विशेषता के कारण पूरे विश्व में भारतीय स्टील की मांग बढ़ने लगी। पश्चिम में सीरिया का नगर दमिश्क भारत से आयातित स्टील का मुख्य बाजार था। यूरोपीय देश भारतीय स्टील को वहीं से खरीदते थे। इसलिए यूरोपीय लोग इस स्टील को दमिश्क स्टील कहते थे।


प्राचीन काल से ही युद्ध की परिस्थितियों में सैनिकों के लिए रसद एवं युद्ध-सामग्री पहुँचाने के लिए बैलगाड़ियों का प्रयोग होता था। इन वाहनों के तथा रथ-सेना के यातायात के लिए तुरन्त रास्तों का निर्माण करना भी अत्यावश्यक था। इसलिए मौर्य-युग में एक विशेष यन्त्र का निर्माण किया गया था जो कि न केवल जंगलों में अपितु पहाड़ों पर भी मार्गनिर्माण करते हुए आगे बढ़ता था। संगमसहित्य युग के कवि मामुळनार तमिळनाडु पर मौर्यों के आक्रमण का वर्णन करते हुए इस विशेष मौर्य यन्त्र का उल्लेख करते हैं।


अशोकावदान (द्वितीय शताब्दी) में छद्म रणनीति का एक उदाहरण मिलता है। सुसीम तक्षशिला में था जब बिन्दुसार के दोनों मंत्री- राधागुप्त और खल्लाटक ने अशोक को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अभिषिक्त किया। सुसीम को जब यह समाचार मिला, तब उसने अपनी सेना लेकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया।


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