प्राचीन भारतीय राजनय

राष्ट्रीय सुरक्षा का सीधा संबंध किसी भी राष्ट्र की सीमाओं एवं वैदेशिक संबंधों के साथ उतना ही घनिष्ठ होता है जितना उस देश की शान्ति और सुदृढ़ विकास का संबंध उसकी आन्तरिक नीति से होता है। वस्तुतः सभ्यता के विकास के साथ-साथ विविध राष्ट्रों के पारस्परिक विनिमय एवं व्यवहार प्राथमिक आवश्यकता बन जाते हैं और तब राष्ट्र सीमाओं को लांघकर दूसरों से व्यवहार का प्रणयन करता है। वस्तुतः विदेश नीति शक्ति-संतुलन का खेलमात्र है। एक राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्रों या देशों से जो व्यवहार करता है, वह इस बात पर निर्भर करता है। कि दोनों के मध्य शक्ति-संतुलन किस ओर है। साथ ही उस राष्ट्र का चरित्र कैसा है। किसी भी देश की विदेश-नीति का निर्धारण उस देश की नीति, चरित्र, आदर्श एवं मूल्यों पर आधारित होता है। ज्यो-ज्यों शक्ति-संतुलन बदलता जाता है, त्यों-त्यों राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में भी युगानुरूप परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है, परंतु मूलतः शक्ति-संतुलन के इस खेल में राष्ट्र का सामर्थ्य एवं राष्ट्रीय चरित्रानुसार उसके मूल्य, आदर्श व नीतियाँ ही वैदेशिक मामलों की नियामक-परिचायक होती हैं।



जहाँ तक सवाल भारत की विदेश नीति का है, भारतीय संस्कृति की सनातन धारा में शांति, अहिंसा, सहिष्णुता प्रधान चरित्र रहे हैं, अतः प्राचीन काल से ही भारत के संबंध इन्हीं मूल्यों पर आधारित रहे हैं। प्राचीन भारत के वैदेशिक संबंध द्विपक्षीय रहे हैं। ‘स्वर्णदीप' व 'सोने की चिड़िया' के नाम से मशहूर भारत को लूटने की चाह में कई विदेशी कभी आक्रांता बनकर आए एवं यहीं रच-बस गए या फिर अपने संबंधों की शुरूआत कर गये। दूसरी तरफ़ आध्यात्मिक ज्ञान-पुञ्ज का आलोक प्राप्त करने कई जिज्ञाषु अध्येता भी भारत आते रहे हैं। परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें, तो भारत का स्वरूप किसी व्यक्ति या समूह या राष्ट्र के अस्तित्व पर खतरा पैदा करके नहीं, वरन् शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति को धारण करते हुए बृहत्तर भारत का निर्धारण करता है। भारत के प्राचीन निवासी अपनी भौगोलिक सीमाओं को लाँघकर सुदूर देशों में गए और वहाँ अपने आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक एवं राजनयिक केन्द्रों की स्थापना की। उन्होंने भारतीय राजनीति, सभ्यता व संस्कृति को जिन विशाल देशों-प्रदेशों में फैलाया, उन भारतीय उपनिवेशों को 'बृहत्तर भारत' कहा जाता है। यह एक प्रकार की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक दिग्विजय थी, जो न केवल विलक्षण थी, वरन् स्वयं में अद्भुत भी रही; क्योकि विश्व की किसी भी अन्य संस्कृति व सभ्यता ने अपना विस्तार अहिंसा व सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव के आधार पर नहीं किया। इस संदर्भ में डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी का कथन ठीक ही जान पड़ता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास का एक रोचक पक्ष भारत की सीमाओं से परे देशों के जीवन और संस्कृति पर उसका प्रभाव है। इन देशों में भारतीय धर्म, दर्शन, विचार-पद्धति, कला, आदि का प्रवेश हुआ जिसके फलस्वरूप वहाँ भारतीय शैली की संस्कृति पल्लवित हुई और बृहत्तर भारत का निर्माण हुआ।'


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