सैम मानेकशॉ : एक अपराजेय सेनापति

हमारे देश के हजारों वर्षों की इतिहास 5 में ऐसे सैकड़ों सेनानायक हुए हैं। जिनका नाम सुनकर शत्रु-सेना खौफ खाती थी। बीसवीं शती में ऐसे ही एक परमवीर सेनानायक भारत को प्राप्त हुआ, उसका नाम था- सैम होर्मुसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ। सम्मानपूर्वक उनको सैम मानेकशॉ कहा जाता है। मानेकशॉ भारतीय सेना के अपराजेय सेनापति व फील्ड मार्शल थे। इनके नेतृत्व में भारत ने 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त की थी, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ था।


सैम मानेकशॉ का का जन्म 03 अप्रैल, 1914 को अमृतसर में एक पारसी-परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम होर्मुसजी मानेकशॉ और माता का नाम हीराबाई था। यह परिवार गुजरात के वलसाड शहर से पंजाब आ गया था। होर्मुसजी मानेकशॉ वहाँ चिकित्सक थे। पारसी-परम्परा में अपने नाम के बाद पिता, दादा और परदादा का नाम भी जोड़ा जाता है; पर सैम मानेकशॉ अपने मित्रों में अंत तक ‘सैम बहादुर' के नाम से प्रसिद्ध रहे।



प्रारम्भिक शिक्षा


मानेकशॉ ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में पायी, बाद में वह नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए और कैम्ब्रिज बोर्ड के स्कूल सर्टिफिकेट परीक्षा में डिस्टिंक्शन हासिल किया। 15 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता से लन्दन भेजने का आग्रह किया जहाँ जाकर वे स्त्रीरोगविशेषज्ञ बनना चाहते थे, पर पिताजी ने यह कहकर मना कर दिया कि अभी वह छोटे हैं और लन्दन जाने के लिए कुछ और समय इन्तजार करें। इसके उपरान्त मानेकशॉ ने तैश में आकर देहरादून स्थित इंडियन मिलिटरी अकैडमी की प्रवेशपरीक्षा में बैठने का फैसला किया और सफल भी हो गए। 1 अक्टूबर, 1932 को एकेडमी के पहले बैच के लिए चयनित 40 छात्रों में से एक थे। 04 फरवरी 1934 को वहाँ से पास होकर ब्रिटिश इंडियन आर्मी (स्वाधीनता के बाद 'इंडियन आर्मी') में सेकंड लेफ्टिनेंट बन गए।


विवाह 


सन् 1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए सैम की मुलाकात सिलू बोडे से हुई। दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल, 1939 को विवाह में बदल गयी।


द्वितीय विश्वयद्ध


सन् 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सैम मानेकशॉ ने मेजर के रूप में 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के साथ बर्मा में मोर्चा संभाला और जापान के विरुद्ध युद्ध किया। उनकी कंपनी के लगभग 50 प्रतिशत से भी अधिक सैनिक मारे जा चुके थे पर मानेकशॉ ने बहादुरी के साथ जापानियों का मुकाबला किया और अपने मिशन में सफलता हासिल की। एक महत्त्वपूर्ण स्थान ‘पगोडा हिल' पर अधिकार करने के दौरान उनके पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियाँ लगीं। शत्रु ने उन्हें मृत समझ लिया; पर मानेकशॉ अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर बच गये। इतना ही नहीं, वह मोर्चा भी उन्होंने जीत लिया। उनकी इस वीरता पर शासन ने उन्हें ‘मिलिट्री क्रॉस' से सम्मानित किया।


 


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