शक्ति-साधना और शस्त्रपूजन-पटपटा

विविध स्वरूपा है शक्ति। इसका स्वरूप शारीरिक ही नहीं होता। यह आध्यात्मिक, बौद्धिक, मानसिक और तांत्रिक- किसी भी रूप में हो सकती है। हर व्यक्ति अपनी रुचि और सुविधानुसार इनकी पूजा-अर्चना और आराधना करने के लिये स्वतंत्र है।


भारतीय त्योहारों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि ये अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत साधना के अंग रहे हैं, साथ ही सामाजिक मान्यताओं और परम्पराओं के पूरक भी। व्यक्ति की भावनाओं को आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित करते हुए परस्परोपयोगी रूप देना इन त्योहारों की सार्थकता रही है। वैदिक तथ्यों के अनुसार कुछ ऐसा ही तथ्य सामने आता है। ऐसी ही मान्यता नवरात्र में शक्ति साधना और शस्त्र-पूजन की भी है जो आदि-अनादि काल से सनातन-धर्म के साथ जुड़ी हुई है। सतयुग में श्रीराम, द्वापर में श्रीकृष्ण से लेकर कलियुग में आज तक शक्ति की आराधना और पूजन की परम्परा निर्बाध गति से चली आ रही है।



देवी-देवताओं को पर्वो और त्योहारों पर सजाने और उनको पूजने की परम्परा तो भारतीय सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न अंग है ही। किन्तु नवरात्र में शक्ति की विशेष आराधना, पूजा और अनुष्ठान की प्रतीकात्मक साधना करने की परम्पराएँ भी भारतीय जीवन-दर्शन का एक अंग हैं। और इसी के साथ जुड़ा हुआ हैशस्त्र-पूजन। विशेषतः यह परम्परा भारतवर्ष के क्षत्रिय कुलों में अधिक प्रचलित है। उनकी ऐसी धारणा और मान्यता है कि वास्तविक शक्ति शस्त्रों में ही निहित है तथा इसका स्वरूप भी एक ही है। शक्ति ही शस्त्र है और शस्त्र ही शक्ति है। यही कारण है कि क्षत्रिय-कुलों में देवी-पूजन के साथ-साथ शस्त्र-पूजन को भी उतना ही महत्त्व दिया गया है।


भारत की शस्यश्यामला धरती पर क्षत्रिय-कुलों की अपनी एक अलग परम्परा रही है। ये धर्म के रक्षक, गो-ब्राह्मणों के प्रतिपालक और आत्मोत्सर्ग के लिए सदा अग्रणी रहे हैं। दुर्दिनों की ओर धकेलनेवाली ईष्र्या, द्वेष, दुस्साहस और अदूरदर्शिता से अभिशापित हमारी साहसिक परम्परा के तत्कालीन कर्णधार क्षत्रिय वंश ही रहे हैं। इनके हौसले जब कभी पस्त हुए हैं, भगवती दुर्गा की कृपा और आशीर्वाद से ही पुनर्जीवित भी हुए हैं।


धरती और धर्म की सुरक्षा का दायित्व अंगीकार करनेवाली सैनिक जातियों में भी शक्ति की उपासना और शस्त्र-पूजन की परम्परा सर्वोपरि रही है। शक्ति की पूजा के प्रति इनके इस स्वाभाविक झुकाव का कारण कुछ भी रहा हो, किन्तु इसके मूल में स्वयं का आत्मविश्वास ही अधिक रहा है। इन सबके अतिरिक्त यह भी ध्रुव सत्य है कि भारतभूमि पर जब-जब भी अन्याय, पाप अथवा अनाचार की पराकाष्ठा हुई, तब-तब पराशक्तियों को पृथिवी पर मानव रूप में अवतरित होना पड़ा। इसी प्रेरणा से मानवजन, शक्ति-उपासना की ओर प्रेरित हुआ।


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