असुरक्षित अस्तित्व

विगत तीन दशकों में जीवन-मूल्यों I में बहुत तेजी से गिरावट आई है। विशेषज्ञों का कहना है कि बेतहासा दौलत, काला धन एवं भ्रष्टाचार की कमाई ने लोगों की बुद्धिमत्ता तो जैसे हर ली है। इससे अपराधों का ग्राफ भी तेजी से बढ़ा है। यौन हिंसा इसमें सर्वोपरि है, जिसका शिकार नारी हुई है। यह सामाजिक संरचना के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। हर वर्ष मई-जून में परिक्षा- परिणाम आते ही लड़कियाँ पहला स्थान हासिल करती हैं, शीर्षकों में छाई रहती हैं, फिर कहाँ गुम हो जाती हैं, पता ही नहीं चलता। इनकी कामयाबी सिर्फ परीक्षा और डिग्री तक ही सीमित रह जाती है। सौ में से कोई एक लड़की ही आगे निकल पाती होगी। बाकी समय आने पर भोगवादी मानसिकतावाले बड़े उच्च पदाधिकारियों की गृहिणियाँ बनकर रह जाती हैं, घरेलू हिंसा सहती हैं और अपने परिवार को बनाए रखने के लिए अनेक कष्ट उठाती हैं। आज नारी की मूल सत्ता और आत्मा को भुला ही दिया गया है। विषमताओं में सर्वाधिक दुःखदाई है बेटा-बेटी के बीच बरती जानेवाली असमानता। शिक्षा बेटे के लिए ही अनिवार्य है, इसीलिए अपने देश में शिक्षा की बहुत कमी है। गाँवों में नारी-शिक्षा का अनुपात बहुत ही कम है। ऐसे में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' का नारा बेबुनियाद लगता है। हमारे घरों में देवी की पूजा खूब जोर-शोर से की जाती है, बेटियों को देवी कहकर ही महिमामण्डित किया जाता है, पर यह सारा शोर खोखला ही होता है; क्योंकि इन्हीं बेटियों को आगे तिरस्कारभरा एक अस्तित्वविहीन जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है। यह हमारे देश की ओछी पुरुषवादी सोच का नतीजा है जो दुःखद है।



इतिहास गवाह है कि जब भी स्त्री ने अपने हक की अपनी सुरक्षा की बात कहनी चाही, उसके मुँह को दबाकर बन्द ही किया गया है। यदि वह चुप हो गई तो ठीक और यदि उसने अपना मुँह बन्द नहीं किया तो उसे मुँहतोड़ ही जवाब दिया गया है। ऐसा ही होता आया है और हो रहा है, यह कोई नयी बात नहीं है। बड़े ही अफ़सोस की बात है कि इतने बड़े मुद्दे पर महिलाओं की सुरक्षा की हिमायत करनेवाली मौजूदा सरकार भी चुप्पी साधे है जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं या जो हुआ, वह आम बात है। हमारे ही देश में बेटियों की सुरक्षा व समानता का ढिंढोरा सबसे ज्यादा पीटा जाता है और हमारा ही देश मानव-तस्करी भ्रूण-हत्या व यौन हिंसा में सबसे आगे है। महिलाओं के लिए पूरे विश्व में चौथा सबसे खतरनाक देश भारत ऐसे ही घोषित नहीं हो गया, यहाँ महिलाओं की स्थिति वाकई दयनीय है। हमारे इसी देश में छोटी-छोटी बातों पर स्त्रियाँ प्रताड़ित की जाती हैं, बेटियाँ गर्भ में ही मार दी जाती हैं। जरा-सी स्वतंत्रता चाहने पर जान से मार दी जाती हैं। मनचलों द्वारा तेजाब डालकर उनकी शक्ल बिगाड़ दी जाती है। यौन हिंसा सभ्य समाज में फैली हुई बीमार मानसिकता और स्त्रीविरोधी सोच की उपज है कि स्त्री को भोग्या मानकर जब चाहें तब छेड़ना, उठा लेना, बलात्कार करके मार देना या घायल स्थिति में छोड़ देना आम बात हो गई है। आधुनिक भारत के सभ्य चेहरे के पीछे का छिपा यह बदसूरत और भयावह सत्य है। कि स्त्री अपने ही घर में, अपनों के बीच में भी असुरक्षित है। चाहे वह बेटी हो, बहन हो पत्नी हो और चाहे जिस उम्र की हो, हिंसा उसका साथ नहीं छोड़ती। महिलाओं के साथ कब कैसी दुर्घटना घट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। न जाने कितनी घटनाएँ तो प्रकाश में भी नहीं आ पातीं। जब कुछ ऐसा घटता है, तब सड़कें खामोश नज़र आती हैं, संगठन चुप हो जाते हैं। रक्षा करने का वादा करनेवाले जैसे नींद में आ जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे सोची-समझी रणनीति के द्वारा नारी के अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है।


समाज की रचना का आधारबिंदु नारी है। नारी जितनी सशक्त होगी, उतना ही समाज उन्नत होगा। परन्तु ये सारी बातें बेमानी-सी लगती हैं, लगता तो यह है कि नारी के शिक्षित हो जाने से हमारा समाज भयभीत-सा हो रहा है कहीं पढ़लिखकर नारियों के तेवर बागी न हो जाएँ, वे अपनी प्राथमिकता न समझ जाएँ, यदि ऐसा हुआ तो उनके तनमन पर राज करने की नीति का क्या होगा।