भारतीय राजा-महाराजाओं की डाक-प्रणाली

भारतीय डाक-प्रणाली में राजाओं- महाराजाओं के द्वारा लंबे समय तक चलाई जाने वाली डाक- व्यवस्था ने भी चार चाँद लगाये। कई रियासतों ने तो शासकीय सुविधा के लिए ही डाक-सेवा शुरू की थी, जबकि बहुत- से राजा-महाराजाओं ने जनता के सरोकारों को केन्द्र में रखा। अंग्रेजों ने जब सन् 1954 में केन्द्रीय डाक-व्यवस्था की नींव रखी, तब भारत में 652 से अधिक रियासतों में डाक-प्रणालियाँ काम कर रही थीं। इनके एकीकरण में बहुत लंबा समय लगा। वास्तविकता यह है कि रजवाड़ों की डाक का भारतीय डाक के साथ वास्तविक एकीकरण हमारे पहले उप्रपधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और पहले संचार मंत्री रफी अहमद किदवई के प्रयासों से संपन्न हो सका। इनके पूर्व दो अंग्रेज़ अफसरों- सर फैडिक होप तथा सर आर्थर ने भी इस दिशा में बहुत उल्लेखनीय प्रयास किए थे। रियासती डाक एकीकरण के प्रयास सन् 1892 से 1953-54 के बीच चलाने पड़े।



भारतीय डाक-व्यवस्था में राजा- महाराजाओं द्वारा स्थापित और लंबे समय तक चलती रही रियासती डाक बहुत महत्त्वपूर्ण कड़ी है। हमारे यहाँ कई राजामहाराजाओं के शौक अजीबोगरीब थे, पर कई ऐसे भी थे, जो आम जनता के हितों के लिए डाक-व्यवस्था चला रहे थे। इसके साथ जिला और अंग्रेजी डाक-व्यवस्था को एकसूत्र में पिरोकर मज़बूत नेटवर्क खड़ा करना कोई आसान काम नहीं था। तमाम राजाओं के अपने फोटोवाले डाक टिकट चल रहे थे। औरों से अलग दिखने के लिए कुछ राज्यों में डाकपेटियों के रंग भी अलग थे। पर इन सारे रंगों ने मिलकर भारतीय डाक-व्यवस्था को बहुत रंगीन बना दिया। राजा-महाराजाओं की डाकव्यवस्था को एकीकृत करने में बड़ी दिक्कत आयी। अंग्रेजों ने जमींदरी या जिला डाक को अपने हितों में बनाए रखा था, पर रजवाड़ों की डाक-व्यवस्था के साथ ऐसा नहीं था। अंग्रेज़ इस मामले में बहुत धीमी गति और धैर्य के साथ चले और एक-एक राजा-महाराजा को पकड़कर भारतीय डाक-व्यवस्था की छतरी तले लाते रहे। यही कारण है कि सन् 1908 तक 635 राज्यों ने केन्द्रीय डाक प्रणाली अपना ली। मगर हैदराबाद, जयपुर, त्रावणकोर तथा ग्वालियर-जैसी बड़ी रियासतों के साथ कुल 17 राज्य फिर भी नयी व्यवस्था में शामिल नहीं हुए। इस तरह आजादी के बाद ही भारतीय डाक वास्तविक एकीकृत स्वरूप पा सकी। पर निज़ाम की डाक तो भारत के आजाद होने के बाद भी जारी रही थी।


सन् 1886 में अंग्रेजों ने देशी रियासतों के डाक-प्रबंध को एकीकृत करने के बारे में गंभीरता से विचार किया और इसी के तहत सन् 1892 में डाक एकीकरण नीति घोषित की। तब देशी रियासतों में हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा, कश्मीर तथा ग्वालियर सबसे बड़ी मानी जाती थीं और अंग्रेजों ने इनके शासकों का वर्गीकरण 21 तोपों की सलामी पानेवाले के रूप में किया था। इस श्रेणी से नीचे के राज्यों में भोपाल, इंदौर, कोल्हापुर, त्रावणकोर, उदयपुर, रीवा, कोचीन, पटियाला, बहावलपुर, जयपुर, जोधपुर, बूंदी, बीकानेर, भरतपुर आते थे, जिन्हें 19 से 17 तोपों की सलामी दी जाती थी। देशी राजा-महाराजाओं में 148 ऐसे थे जिनके पास तोपें भी थी। इन राजाओं ने अपने राजकुमारों को अंग्रेजों से मुकाबले लायक बनाने के लिए सन् 1873 में अजमेर में मेयो कॉलेज स्थापित कराया था। अलवर, कोटा, इंदौर, रीवा, बीकानेर तथा अन्य राजाओं के द्वारा इसके लिए 10 लाख डॉलर की राशि प्रदान की गई थी। 260 एकड़ जमीन पर सफेद संगमरमर से बहुत सुंदर कॉलेज बना, जिसका प्रिंसिपल अंग्रेज़ था। यहाँ कई छात्रों के पास 1911 में निजी मोटर कारें भी थीं।


 बहरहाल, तमाम प्रयासों के बाद 652 राजा-महाराजाओं में से सन् 1908 तक 635 की डाक सेवा का एक धारा में विलय कर दिया गया। बाकी बची 17 रियासतों में बुंदेलखण्ड की पन्ना और दतिया ने सन्1921-22 में भारतीय डाक धारा में अपनी डाक-व्यवस्था का विलय कर दिया। पर हैदराबाद, ग्वालियर, जयपुर, त्रावणकोर, उदयपुर, छतरपुर, भोपाल, ओरछा, जूनागढ़ समेत कुल 15 रियासतें अड़ी रहीं। ये न तो डाक एकीकरण अभियान में शामिल हुईं, न ही इन्होंने कोई सन्धि की। इनमें से कुछरियासतें तो डाक टिकट का उपयोग भी नहीं करती थीं, जबकि हैदराबाद, ग्वालियर, मैसूर, जयपुर, त्रावणकोर, भोपाल, ओरछा, जूनागढ़, जींद, नाभा, चम्बा, पटियाला, अलवर, कोटा, कोचीन, जोधपुर, बनारस, सुक्कर और लासवेला की रियासतों के अपने डाक टिकट थे। डाक टिकटों पर इलाकाई राजाओं की फोटो के साथ राज्य के नाम छपते थे। पर बची रही रियासतों में से ज्यादातर के पास मजबूत डाक नेटवर्क भी नहीं था।


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