डाक से ई-मेल तक का सफर

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह नुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अपने परिजनों, मित्रों, शुभचिन्तकों और रिश्तेदारों के आस-पास या लगातार संपर्क में बने रहना चाहता है। इनसे दूर हो जाने होने पर वह बेचैनी तथा असुरक्षा महसूस करता है। मनुष्य दूसरे के हर क्रियाकलाप की जानकारी बिना देर लगाए पाना चाहता है, तथा अपवाद को छोड़कर अपनी बातें भी अन्य लोगों से साझा करना चाहता है। नित्यप्रति एक दूसरे का हाल-चाल लेने एवं दुःख-सुख में शामिल होने का प्रचलन इन्हीं कारणों से है। नौकरी, व्यापार एवं विभिन्न अन्य कारणों से व्यक्ति को अपने सगे-संबंधियों एवं शुभचिन्तकों को छोड़कर घर से दूर जाना पड़ता है। इन परिस्थितियों में वह किसी-न-किसी तरीके से उनके संपर्क में बने रहना चाहता है।



अपनी बात कहने तथा दूसरे की सुनने के लिए मनुष्य आपसी बातचीत, चौपाल, सभा, समारोह, गोष्ठियाँ, चिट्ठी, संदेश, संकेत, विभिन्न प्रकार की चर्चाएँ आदि खबरों के पुराने माध्यमों द्वारा तथा इनके साथ-ही-साथ टीवी, अखबार, रेडियो, टेलीग्राम, टेलीफोन, मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्सएप, चैटिंग, मैसेजिंग, ई-मेल, ट्विटर-जैसी आधुनिक सुविधाओं का सहारा लेता है।


अठारहवीं शती से पहले की बात करें, तो दूर रह रहे रिश्तेदारों या घर से दूर गए किसी सदस्य का हाल-चाल जानने या संदेश लेने-देने के लिए किसी संदेशवाहक को भेजना पड़ता था। राजकीय संदेशों को दूत द्वारा भेजा जाता था। धनी एवं राजकीय व्यवस्था से जुड़े लोग तो अपने संदेशों को किसी प्रकार भिजवा देते थे, परंतु आम जनता के लिए यह बहुत ही मुश्किल तथा महंगा था। राजा/शासन/सरकार या किसी सामाजिक समूह की तरफ से संदेशों को लाने-ले जाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी। विदेशों में डाक लाने, ले-जाने की दूर-दूर तक कोई व्यवस्था नहीं थी।


सन् 1700 एवं 1800 के कालखण्ड में, जब यूरोपवासी विश्व के अन्य देशों में व्यापार एवं शासन करने की इच्छा से रहने लगे, तब उन्हें महसूस हुआ कि सुदूर देशों में बेहतर एवं स्थायी शासन करने के लिए संदेशों को तेज गति से भेजना एवं प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है। विभिन्न देशों के मूल निवासियों द्वारा उनके विरुद्ध किए जानेवाले आंदोलनों एवं गुप्त प्रतिरोध को जल्द-से-जल्द जानने एवं समझने के लिए तो यह और भी ज़रूरी था। इसके साथ ही हजारों किलोमीटर दूर रह रहे परिजनों के हाल-चाल को निरंतर कुछ अंतराल पर तथा बिना ज्यादा समय गुजारे जानना जरूरी लगता था। इस ज़माने में संदेशों के आदान-प्रदान की व्यवस्था विश्वसनीय नहीं थी। घर से दूर जाते समय लोग रूआँसे हो जाते थे, क्योंकि सुख- दुःख का कोई भी संदेश जानेवाले तक पहुँच पाएगा या नहीं, या यदि पहुँचा तो कब पहुँचेगा, इसका निश्चित पता नहीं होता था।


इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए डाक विभाग खोला गया। सर्वप्रथम देश की राजधानी तथा बड़े शहरों में डाकघर स्थापित किए गए, फिर अन्य शहरों तथा कस्बों में। बाद में सभी महत्त्वपूर्ण गाँवों में डाकघर स्थापित किए गए। डाकघरों से पत्रों, किताबों के साथ-साथ धन का आदान-प्रदान भी किया जा सकता था। प्रत्येक डाकघर में पोस्टमास्टर तथा पत्र पहुँचाने के लिए डाकियों की नियुक्तियाँ की गयीं। पोस्टऑफिस के कर्मचारियों को, गोपनीय रूप से निगरानी के तंत्र के रूप में भी प्रयोग किया गया। एक समय डाकिया ग्रामीण जनमानस के बीच मेहमान सरीखे सम्मान एवं प्रतीक्षा का विषय रहता था और कुछ क्षेत्रों में आज भी है। दूरी के हिसाब से डाक 1 सप्ताह से 2 महीने तक का समय लेते हुए गंतव्य तक पहुँचती थी। कभी-कभी डाक गुम भी हो जाती थी या बहुत समय बाद पहुँचती थी। इन कारणों से विश्व के विभिन्न देशों में डाक लाने, ले-जाने की तेज विधि की आवश्यकता महसूस की जा रही थी।


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