दीपावली हमारा राष्ट्रीय पर्व

हमारे पर्वोत्सव हमारी प्राचीन और समृद्धशाली भारतीय संस्कृति का अटूट अंग हैं। दीपावली हमारे सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वो में एक राष्ट्रीय पर्व है। कार्तिक की अमावस्या को यह पर्व समस्त देश में अत्यंत उत्साह और उमंग से सम्पन्न होता है। अमावस्या की महानिशा के इस शुभावसर पर मंगलकारी शक्ति माँ लक्ष्मी के पूजन के साथ दीप प्रज्वलित कर जिस पावन ज्योति की हम उपासना करते हैं, वह आत्मरूपी लौ से प्रदीप्त अमरूपी ज्योति है, जो हमें अंधकार से प्रकाश (तमसो मा ज्योतिर्गमयः) तथा अज्ञान से ज्ञान के मार्ग पर प्रशस्त करती है।


जीवन की आधार अष्टरूपा भगवती लक्ष्मी धन-सम्पत्ति, सुख और समृद्धि, सौभाग्य और ऐश्वर्य तथा यश और तेज की प्रदाता हैं। उनकी पूजा-अर्चना से मनुष्य के पुरुषार्थचतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में अभिवृद्धि होती है। दीपावली स्वच्छता का प्रतीक तथा शुभता का उत्सव भी है। मान्यता है कि महालक्ष्मी का आगमन स्वच्छ घर में ही होता है। इसलिए सभी लोग दीपावली से पूर्व अपने घर-आंगन को लीप-पोतकर साफ-सुथरा करके महालक्ष्मी के भव्य-स्वागत के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर प्रतीक्षा करते हैं। इस शुभावसर पर घर के आँगन तथा पूजाघर में नाना प्रकार की रंगोली बनाई जाती है। मुख्य द्वार को तोरण तथा वन्दनवारों से सजाया जाता है। छत-मुंडेर और गृह-आंगन तथा व्यवसाय-स्थलों को दीपमालाओं तथा कन्दीलों से आलोकित किया जाता है।


आध्यात्मिक रूप से यह पर्व अंधकार पर प्रकाश, असत्य पर सत्य, अज्ञान पर ज्ञान तथा बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। इस ज्योतिपर्व पर धन-धान्यप्रदाता माँ लक्ष्मी के साथ-साथ ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नविनाशक मंगलकारी गणपति तथा विद्या और ज्ञान की देवी भगवती की भी पूजा-अर्चना की जाती है।


वात्स्यानकामसूत्र में 'कौमुदी महोत्सव' तथा वामनपुराण में ‘कोजागरी उत्सव' के नाम से इस पर्व का उल्लेख मिलता है। बंगाल और असम राज्य में यह उत्सव शरद पूर्णिमा की पावन, शीतल और स्निग्ध चाँदनी में सम्पन्न होता है।


इस पर्व से अनेक कथाएँ जुड़ी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम लंका के अनाचारी राजा रावण का वध करके चौदह वर्षों के वनवास के उपरांत जब अयोध्या लौटे, तब सम्पूर्ण अयोध्या हर्षोल्लास में डूब गयी। सम्पूर्ण अयोध्या को सजाया गया और रात्रि में समस्त घरों को दीपमालाओं से अलंकृत करके दीपोत्सव मनाया गया। जैन मत के 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर को कार्तिक अमावस्या की प्रातःवेला में निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन मतावलम्बी इस पवित्र दिन दीपक जलाते हैं। छठी शताब्दी ईसा पूर्व भगवान् बुद्ध के स्वागत में इस पवित्र दिन हजारों दीप उज्वलित किए थे। आज भी बौद्ध मत में इस दिन बौद्ध स्तूपों को दीपमालाओं से अलंकृत कर उनका स्वागत करने की परम्परा अक्षुण्ण है। सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द (1606-1644) इसी दिन मुग़ल-शासक जहाँगीर की कैद से मुक्त होकर अमृतसर पहुँचे थे। समस्त नगर को दीपमालाओं से सजाकर उनका भव्य स्वागत किया गया था। आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ने कार्तिक अमावस्या के दिन ही निर्वाण प्राप्त किया था। आर्यसमाजी श्रद्धापूर्वक यह पर्व मनाते हैं।


इस पर्व से सम्बद्ध देवी-देवता तथा पवित्र प्रतीक चिह्न


कमलासीन देवी महालक्ष्मी



मार्कण्डेयपुराण में महालक्ष्मी को पद्मिनी (पद्म अर्थात् कमल से सुभोभित) कहा गया है। उन्हें कमला (कमल पर आसीन) और पद्मा (कमल पर निवास करनेवाली) भी कहा गया है। अति प्राचीन काल से ही भारतवासी कमल पर आसीन देवी लक्ष्मी की आराधना सुख-समृद्धि, वैभव और सम्पन्नता की देवी के रूप में करते आए हैं। कुषाणकालीन महालक्ष्मी की जो प्रतिमाएँ मिलती हैं, उनमें वे कमल पर आसीन हैं तथा उनकी चतुर्भजाओं में से ऊपर की दो भुजाओं में कमल के पुष्प हैं। देश के विभिन्न भागों के मन्दिरों में भी माँ लक्ष्मी की मूतियाँ इसी रूप में शोभायमान हैं। 


भारतीय धर्म और दर्शन में कमल की प्रतिष्ठा एक सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में स्थापित रही है। कमल पवित्रता, निश्छलता, सौन्दर्य, कोमलता और सृजन का द्योतक है। हमारे धर्म-दर्शन, प्राच्य चित्रकला और स्थापत्य कला, प्राचीन और अर्वाचीन मन्दिरों तथा महलों और मुख्य संस्थाओं के स्तम्भों आदि पर उत्कीर्ण सर्वाधिक अनुकृतियाँ कमल की ही मिलती हैं। देवी-देवताओं के हथेली को ‘करकमल' और पैरों को ‘चरणकमल' कहकर ही सम्बोधित किया जाता है। विष्णुपुराण (1.9.118) में माँ लक्ष्मी के जिस मनोहारी सुन्दर स्वरूप का वर्णन मिलता है, उससे भी कमल की महत्ता और पवित्रता स्थापित होती है


पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्।


वन्दे पद्ममुखी देवीं पद्मनाभप्रियामहम् ॥


अर्थात् कमल पर विराजमान, हाथ में कमल धारण करनेवाली, कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली और कमल नाभिवाले भगवान् विष्णु की प्रिय देवी लक्ष्मी की हम वन्दना करते हैं।


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