ग्वालियर रियासत की डाक-प्रणाली

भारत में डाक-टिकट पहली बार सन् 1852 में सिंध-डाक के नाम से जारी किया गया था और 1854 में ये अखिल भारतीय स्तर पर आधा आना, एक आना, दो आना व चार आना कीमत के अनुसार के थे, जो लीथो- पद्धति से स्टोन डाई द्वारा छापे गए थे। इस पर महारानी विक्टोरिया की मुखाकृति बनी थी। इस दौरान ग्वालियर के रेजीडेंट पोस्ट ऑफिस से जारी पत्रों पर ये टिकट लगाकर भेजे जाने लगे थे।


सन् 1885 में ब्रिटिश साम्राज्य व ग्वालियर दरबार के बीच दूसरी डाक संधि हुई, जिसके तहत ग्वालियर राज्य को अपने राज्य में सुव्यवस्थित रूप से स्वयं की नियमित डाक-प्रणाली पुनः जारी करने का प्रावधान किया गया। इस प्रणाली के लिए नियम व डाक-दरों का प्रावधान ब्रिटिश भारत की तरह ही था, किन्तु प्रयोग किए जानेवाले ब्रिटिश डाक-टिकटों, लिफाफों आदि पर हिंदी व अंग्रेजी में ‘ग्वालियर अतिरिक्त रूप से छपा रहता था, इसके लिए ब्रिटिश सरकार कोई अतिरिक्त राशि नहीं लेती थी। इस संधि में मुख्य बात यह थी कि जहाँ अन्य देशी रियासतों को अपने डाक टिकटवाली सामग्री मात्र अपने राज्य में ही प्रयोग करने का अधिकार था, वहीं ग्वालियरवाले डाक टिकट युक्त सामग्री ब्रिटिश साम्राज्य में भेजने के लिए अधिकृत थी। इस दौरान राज्य के पहले पोस्टमास्टर जनरल पं. शिवचरण थे। इसके बाद जल्द ग्वालियर रियासत के डाकखानों द्वारा पोस्टकार्ड, लिफाफों के साथ-साथ रजिस्ट्री-पत्र व मनीऑर्डर की सुविधा भी उपलब्ध करा दी गई।



यह है ग्वालियर की डाक-व्यवस्था का इतिहास


ग्वालियर राज्य-क्षेत्र में मराठों के आने के बाद ही नियमित डाक-सेवा शुरू हुई थी। यह डाक-सेवा दो प्रकार की थी, इसमें प्राथमिक राजकीय स्तर पर थी। इसमें राज्य की ओर से हरकारे नियुक्त किए गए थे, जो निर्धारित मार्ग पर एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक बढ़नेवाले हरकारों को डाक का स्थानान्तरण कर गन्तव्य स्थान तक डाक को सुरक्षित पहुँचा देते थे। राजधानी ग्वालियर से एक मार्ग नरवर, शिवपुरी, गुना, सुथालिया, ब्यावरा, पचौर, शाजापुर, उज्जैन जाता था। यही मार्ग आगे बीकमगाँव, असीरगढ़, बुरहानपुर, सीसर होता हुआ पूना पेशवाओं की सेवा में पहुँचता था। दूसरा रास्ता अकबरपुर, कालपी, जहानाबाद होता हुआ इलाहाबाद पहुँचता था। इलाहबाद से ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा नियमित रूप से कलकत्ता तक डाक पहुँचाई जाती थी। वहीं तीसरा मार्ग मुरैना, धौलपुर, आगरा, मथुरा, कोसी, होडल, वल्लभगढ़ होता हुआ शाहजहानाबाद-दिल्ली पहुँचता था। शासकीय पत्रों के अलावा सर्वसाधारण को यह सुविधा उस समय मात्र उच्च अधिकारियों की दया पर निर्भर थी।


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