लक्ष्मी पूजा-अर्चना की प्राचीनता

विपुलता, माधुर्य, श्री और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना का महापर्व दीपावली, हमारी प्राचीन संस्कृति से सम्बद्ध है। यह पर्व प्राचीन होते हुए भी आत्मबोध, नवसृजन और कर्ममय जीवन का प्रतीक है, जो हमारे जीवन में दीपोत्सव के रूप में नवशक्ति, नवभाव, नवोल्लास और नवोत्साह का संचार करने आता है। असत्य पर सत्य की तथा अंधकार पर प्रकाश की चिरकालीन विजय का सन्देश देनेवाले इस महापर्व का ध्येय है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। असतो मा सद्गमय।


इस प्राचीन पर्व की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना के प्राचीन स्रोत हमें वेद, पुराण, प्राचीन सिक्कों आदि के माध्यम से प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। मूलतः महालक्ष्मी और उसकी पूजा-अर्चना वेदोक्त हैं, जिसमें उसे श्री और लक्ष्मी कहा गया है। ये शब्द अलगअलग अर्थों में ऋग्वेद में सन्निहित हैं। 'श्री' का अर्थ सौन्दर्य, शोभा और ज्ञान तथा 'लक्ष्मी' का अर्थ विपुल, धन, सम्पन्नता और ऐश्वर्य से माना गया। कालान्तर से 'श्री' और 'लक्ष्मी' शब्द समन्वित अर्थ में प्रयुक्त होकर चलन में आ गये। श्रीलक्ष्मी के स्वरूप की संधारणा मातृदेवी की अर्चना में ज्ञात होती है। प्रातःकालीन स्मरण में तो पृथिवी को ही लक्ष्मी के रूप में पूजा गया है- समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मण्डले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।



श्रीसूक्त तो देवी लक्ष्मी का सुप्रसिद्ध स्तोत्र है। प्राचीन वैदिक साहित्य में एक स्थान पर अर्चना के रूप में पृथिवी को लक्ष्मी की प्रिय सखी कहा गया है। मातृदेवी के इस प्राचीन अर्चनावाले स्वरूप की भावना वेदों में ही नहीं अपितु सुमेरियन, बेबिलोनियन और अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी प्राप्त होती है।


पुराणों में समुद्रमंथन से लक्ष्मी के उद्भव की कथा आती है। इसी के साथ यदि पद्मपुराण का अवलोकन किया जाए, तो ज्ञात होता है। कि पद्म को जहाँ पृथिवी का स्वरूप मानकर उसकी महत्ता बताई गई है, वहीं पद्म (पृथिवी) के बिना श्रीलक्ष्मी की संधारणा संभव नहीं होना भी बताया गया है। इसी आशय से श्रीसूक्त में लक्ष्मी की अर्चना ‘पद्मप्रिया', 'पद्मिनी’, ‘पद्मालया' आदि कहकर की गई है।


इसी कारण दीपावली पर धन व ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजाअर्चना धन-धान्य, पुत्र-पौत्र तथा दीर्घायुष्य के लिए की जाती हैइसमें यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्मी पूजा-अर्चना का मूल भाव प्राचीन और वैदिक ग्रन्थों के काल से लेकर वर्तमान तक जन-जन में प्रचलित है। ‘अर्चना' शब्द के स्थान पर ‘पूजा' शब्द का प्रयोग द्रविड़ भाषा का ज्ञान कराता है। इसमें 'पू' का अर्थ 'पुष्प' तथा 'जा' (जे) का अर्थ ‘अर्पित करना है। उज्जियनी की मनोविज्ञान शिक्षाविद् प्रो. (डॉ.) श्रीमती प्रेम छाबड़ा का कहना है कि 'ऋग्वेद में देवताओं के आह्वान के समय प्रज्वलित अग्नि में जो हवि डाली  जाती है और आह्वान में वेद की ऋचाओं तथा मंत्रों का उच्चारण किया जाता था, वस्तुतः उसे ही ‘अर्चना' कहा जाता था। श्रीमती प्रेम छाबड़ा का मानना है कि ‘लक्ष्मी का राजलक्ष्मी रूप द्रविड़ तथा श्रीलक्ष्मी का रूप आर्य है, लेकिन वेदों में चारों दिशाओं में चार हाथी माने गए हैं, जिनका मुखिया ऐरावत है। इस प्रकार लक्ष्मी राष्ट्र में अखिल पूजा-अर्चना के रूप में बहुख्यात हैं।


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