संस्कृत-वाङ्मय में दूतकाव्य

सम्यक् रूप से जो हमें आबद्ध कर लेता है, उसे सम्बन्ध कहते हैं और इन सम्बन्धों के प्रति मानव ही नहीं, मानवेतर प्राणी भी सजग रहते हैं। इन सम्बन्धों के परिचालन में संचार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि आदिमानव भी संचार के प्रति सजग रहा होगा। समाज-निर्माणकाल से इसका आविष्कार मानना उचित होगा। आवश्यकतानुसार इसके स्वरूप में परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता रहता है, किन्तु एक तथ्य प्राचीन काल से अबतक चला आ रहा है कि संचार के कारण सन्देश में परिवर्तन न हो और वह यथावत्, शीघ्र और यथास्थान पहुँच जाय। प्राचीन काल में संचार के लिये पक्षियों, गुप्तचरों और दूतों का विशेष प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। यह भी अतिशयोक्ति नहीं है कि दूतपरम्परा भारत की ही देन है। दूत अपने स्वामी तथा शत्रु के गुप्त संकेतों, चेष्टा, आकार, भाव और प्रयत्नों के द्वारा उसके मनोभावों को ग्रहण करनेवाला होना चाहिये। इसके विषय में कहा गया है



स विद्यादस्य त्येषु निगूढेङ्गितचेष्टितः।


आकामिङ्गितं चेष्टां भृत्येषु च चिकीर्षतम्॥


उसे स्वदेश के हितों की रक्षा के लिये अपनी बात निडरता से कहनी चाहियेऐसा शास्त्रों में निर्देश प्राप्त होता है। दूतकार्य की प्रशंसा सर्वत्र की गई है। वाल्मीकीयरामायण में लक्ष्मण से हनुमान् का परिचय श्रीराम इस प्रकार कराते हैं


नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।


बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्॥


अविस्तरमसन्दिग्धमविलम्बितमव्यथम्।


उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्।


उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीम्॥


-किष्किन्धाकाण्ड, 3.29,31-32


अर्थात्, इस व्यक्ति ने निश्चित रूप से व्याकरण का अध्ययन अनेक बार किया होगा; क्योंकि अनेक प्रकार का व्यवहार करते हुए भी इसने कभी भी अपभाषण (अनर्गल बात) नहीं किया। इसने अविस्तर (विस्ताररहित), असन्दिग्ध (सन्देहरहित), अविलम्बित (विलम्बरहित), अद्रुतम् (शीघ्रतारहित), हृदयस्थ और कण्ठस्थ वाक्यों का मध्यम स्वर में उच्चारण किया है। निश्चय ही इनकी वाणी हृदय का हरण करनेवाली और कल्याणकारिणी है।


दूतकाव्य संस्कृत-काव्यों की एक विशिष्ट परम्परा रही है और इसका आरम्भ महाकवि भास, महाकवि घटकर्पर तथा महाकवि कालिदास के काव्यों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है, तथापि इसकी प्राचीनता अवश्यमेव इससे भी पूर्व है। वाल्मीकीयरामायण की उपजीव्यता को स्वयं कालिदास ने अपने मेघदूत के लिए स्वीकार किया है। तदनुसार मेघ को दूत बनाने की प्रेरणा के पृष्ठ में श्रीराम के द्वारा हनुमान् को विरह-संदेश देकर प्रेषित करना था। यह परम्परा विरही और विरहणियों के लिये प्रायः काव्यों में देखी गई है, जिन्होंने अपने प्रेमपात्रों के लिये भ्रमर, शुक, चातक, काक और हंस आदि पक्षियों के द्वारा संदेश प्रेषित करने के लिए निवेदन किया है । घटकर्परकाव्य के 22 पद्यों में आकाश में घिरे बादल को देखकर एक विरहिणी अपने विरह का वर्णन करती है। इस काव्य के विषय में यह मान्यता है कि इसके रचयिता कवि ने कहा था कि इस काव्य से उत्कृष्ट रचना करनेवाले के घर पर फूटे घड़े से पानी भरने को वे तैयार हैं। अतः इस काव्य का नाम घटकर्परकाव्य पड़ गया। इसी प्रकार श्रीरुद्रन्यायवाचस्पति का पिकदूत, वादिराज का पवनदूत, हरिदास का कोकिलदूत, सिद्धनाथ विद्यावागीश का पवनदूत, कृष्णनाथ न्यायपञ्चानन का वातदूत, अजितनाथ न्यायरत्न का बकदूत, रघुनाथदास का हंसदूत, अज्ञातकवि द्वारा कपिदूत, रुद्रवाचस्पति का भ्रमरदूत, वासुदेव का भ्रमरसंदेश, कृष्णचन्द्र तर्कालंकार का चंद्रदूत, माधव कवीन्द्र भट्टाचार्य का उद्धवदूत, रूपगोस्वामी के उद्धवसंदेश और हंसत, अवधूत रामयोगी (13वीं शती) का सिद्धदूत, कवि विष्णुदास का मनोदूत आदि रचनाएँ पश्चाद्वर्ती हैं। इसी प्रकार कवि उद्दहमाण का अपभ्रंश संदेशरासक काव्य भी प्रसिद्ध है। इस रचना में विरहिणी नायिका खंभात जाते हुए किसी पथिक से अपने प्रिय के पास संदेश ले जाने के लिये निवेदन करती है। देवदूत और राजदूतों का भी अनेक स्थलों पर वर्णन प्राप्त होता है।  


आगे और----