शौक डाक-टिकटों के संग्रह का

सुन्दर और उपयोगी वस्तुओं का संग्रह मानव का स्वभाव है। हर चीज को संग्रह करने में मज़ा है और हर एक चीज के संग्रह के साथ कुछ-न-कुछ ज्ञान प्राप्त होता है, लेकिन डाक-टिकटों के संग्रह का मज़ा कुछ और ही है। हर डाक-टिकट किसी-न-किसी विषय की जानकारी देता है, उसके पीछे कोई-न-कोई जानकारी जरूर छुपी होती है। यदि हम इस छुपी हुई कहानी को खोज सकें, तो यह हमारे सामने ज्ञान की रहस्यमय दुनिया का नया पन्ना खोल देता है। इसीलिए तो डाक-टिकटों का संग्रह विश्व के सबसे लोकप्रिय शौक में से एक है। डाक-टिकटों का संग्रह हमें स्वाभाविक रूप से सीखने को प्रेरित करता है, इसलिए इसे प्राकृतिक शिक्षा- उपकरण कहा जाता है। इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान हमें मनोरंजन के माध्यम से मिलता है, इसलिए इन्हें शिक्षा का मनोरंजक साधन भी माना गया है।


  


डाक-टिकट किसी भी देश की विरासत की चित्रमय कहानी हैं। डाक-टिकटों का एक संग्रह विश्वकोश की तरह है, जिसके द्वारा हम अनेक देशों के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, ऐतिहासिक घटनाएँ, भाषाएँ, मुद्राएँ, पशु-पक्षी, वनस्पतियों और लोगों की जीवनशैली एवं देश के महानुभावों के बारे में बहुत सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।


डाक-टिकट का इतिहास करीब 177 साल पुराना है। विश्व का पहला डाक टिकट 1 मई, 1840 को ग्रेट ब्रिटेन में जारी किया गया था जिस पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का चित्र छपा था। एक पेनी मूल्य के इस टिकट के किनारे सीधे थे यानी टिकटों को अलग करने के लिए जो छोटे छोटे छेद बनाए जाते हैं, वे प्राचीन डाक टिकटों में नहीं थे। इस समय तक उनमें लिफाफे पर चिपकाने के लिए गोंद भी नहीं लगा होता था। इसका उपयोग 6 मई, 1840 से प्रारम्भ हुआ। टिकटसंग्रह में रुचि रखनेवालों के लिए इस टिकट का बहुत महत्त्व है; क्योंकि इस टिकट से ही डाक-टिकट संग्रह का इतिहास भी शुरू होता है। भारत में पहला डाक-टिकट 1 जुलाई, 1852 को सिंध प्रांत में जारी किया गया जो केवल सिंध प्रांत में उपयोग के लिए सीमित था। आधे आने मूल्य के इस टिकट को भूरे कागज पर लाख की लाल सील चिपकाकर जारी किया गया था। यह टिकट बहुत सफल नहीं रहा; क्योंकि लाख टूटकर झड़ जाने के कारण इसको संभालकर रखना संभव नहीं था। फिर भी ऐसा अनुमान किया जाता है कि इस टिकट की लगभग सौ प्रतियाँ विभिन्न संग्रहकर्ताओं के पास सुरक्षित हैं। डाकटिकटों के इतिहास में इस टिकट को ‘सिंध डाक के नाम से जाना जाता है। बाद में सफेद और नीले रंग के इसी प्रकार के दो टिकट वोव कागज़ पर जारी किए गए, लेकिन इनका प्रयोग बहुत कम दिनों रहा; क्योंकि 30 सितंबर, 1854 को सिंध प्रांत पर ईस्ट इण्डिया कंपनी का अधिकार होने के बाद इन्हें बंद कर दिया गया। ये एशिया के पहले डाकटिकट तो थे ही, विश्व के पहले गोलाकार टिकट भी थे। संग्रहकर्ता इस प्रकार के टिकटों टिकट भी थे। संग्रहकर्ता इस प्रकार के टिकटों को महत्त्वपूर्ण समझते हैं और आधे आने मूल्य के इन टिकटों को आज सबसे बहुमूल्य टिकटों में गिनते हैं। समय के साथ जैसे-जैसे टिकटों का प्रचलन बढ़ा, वैसे-वैसे 1860 से 1880 के मध्य बच्चों और किशोरों में टिकट-संग्रह का शौक पनपने लगा। दूसरी ओर अनेक वयस्क लोगों ने इनके प्रति गंभीर दृष्टिकोण अपनाया। टिकटों को जमा करना शुरू किया, उन्हें संरक्षित किया, उनके रेकार्ड रखे और उन पर शोध-आलेख प्रकाशित किए। जल्दी ही इन संरक्षित टिकटों का मूल्य बढ़ गया; क्योंकि इनमें से कुछ तो ऐतिहासिक विरासत बन गए थे। ये अनुपलब्ध हुए और बहुमूल्य बन गए। ग्रेट ब्रिटेन के बाद अन्य कई देशों द्वारा डाक-टिकट जारी किये गये। 


सन् 1920 तक यह टिकट-संग्रह का शौक आम जनता तक पहुँचने लगा। उनको अनुपलब्ध तथा बहुमूल्य टिकटों की जानकारी होने लगी और लोग टिकट संभालकर रखने लगे।नया टिकट जारी होता तो लोग डाकघर पर उसे खरीदने के लिए भीड़ लगाते। लगभग 50 वर्षों तक इस शौक का ऐसा नशा जारी रहा कि उस समय का शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसने जीवन में किसी-न-किसी समय यह शौक न अपनाया हो। इसी समय टिकट-संग्रह के शौक पर आधारित टिकट भी जारी किए गए। ऊपर दाहिनी ओर जर्मनी के टिकट में टिकटों के शौकीन एक व्यक्ति को टिकट पर अंकित बारीक अक्षर आवर्धक लेंस (मैग्नीफाइंग ग्लास) की सहायता से पढ़ते हुए दिखाया गया है। आवर्धक लेंस टिकट-संग्रहकर्ताओं का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। यही कारण है कि डाक-टिकटों के संग्रह से संबंधित अनेक टिकटों में इसे दिखाया जाता है। यहाँ हरे रंग के 8 सेंट के टिकट को अमेरिका के डाक-टिकटों की 125वीं वर्षगाँठ के अवसर पर 1972 में जारी किया गया था।


आगे और---