दैवीय, मानवीय, अमानवीय एवं आसुरी

महाकवि कालिदास ने रघुवंशमहाकाव्य में महाराजा दिलीप तथा महारानी सुदक्षिणा द्वारा नन्दिनी की सेवा का वर्णन इस प्रकार किया है- ‘महारानी प्रातःकाल उस गौ की भली- भाँति पूजा करती थी। आरती उतारकर नन्दिनी को पति के संरक्षण में वन में चरने के लिए विदा करती। सम्राट् दिनभर छाया की भाँति उसका अनुगमन करते, उसके ठहरने पर ठहरते तथा चलने पर चलते, बैठने पर बैठते और जल पीने पर जल पीते। संध्या काल में जब सम्राट् के आगे-आगे सद्यप्रसूतः बालवत्सा (छोटे दुधमुंहे बछड़ेवाली) नन्दिनी आश्रम को लौटती, तो साम्र साम्राज्ञी देवी प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करती और अक्षतादि से पुत्र-प्राप्तिरूपी अभीष्ट सिद्धि अभीष्ट सिद्धि देनेवाली उस नन्दिनी का विधिवत् पूजन करती। अपने बछड़े को यथेच्छ पयःपान कराने के बाद दुह ली जाने पर पर नन्दिनी की रात्रि में दम्पति पुनः परिचर्याकरते, अपने हाथों से कोमल, हरित शस्यकवल खिलाकर उसकी परितृप्ति करते और उसके विश्राम करने पर शयन करते।



श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कन्ध (10.15.1) के श्लोक की व्याख्या पूज्य संत श्री रामचन्द्र केशव डोंगरे जी महाराज इस प्रकार करते हैं- 'बाल कृष्ण ने यशोदा माता से कहा कि माँ मैं बड़ा हो गया हूँ, मुझे गायों की सेवा करनी है। आज तक बाल कृष्ण वत्सपाल थे। बछिया/बछड़ों को लेकर चराने जाते थे। शाण्डिल्य ऋषि से मुहूर्त निकलवाया गया। ऋषि ने गोपाष्टमी का शुभ दिन सुझाया। बाल कृष्ण गोपाष्टमी को ब्रह्म मुहूर्त में ही जग गये। गायों की पूजा की, उन्हें लड्डू खिलाये, प्रदक्षिणा की और साष्टांग वन्दन भी किया। यशोदा मैया ने एक ब्रजवासी से कहा- “आज तक कन्हैया बछड़ों को लेकर यमुना जी के तट तक जाता था, आज वह गायों को लेकर दूर-दूर तक जायेगा। मार्ग में काँटे, कंकड़, पत्थर होंगे। धूप से तपकर वे गर्म हो जाते हैं। कन्हैया के पग कोमल हैं। उसके लिए एक सुन्दर पनही (जूता) का जोड़ा बनाकर ले आना।'' ब्रजवासी पनही बनाकर ले आता है। सबकी इच्छा है कि कन्हैया पनही पहनकर जाये। कन्हैया ने पहनने से इंकार कर दिया और कहा- ''मैं गायों का सेवक हूँ। मेरी गायें नंगे पैर जाती हैं, मैं भी नंगे पैर ही जाऊँगा।'' इस पर यशोदा मैया ने समझाया कि गाय तो पशु है। कन्हैया इस बात पर रुष्ट हो गये और कहा, “मैया आपने गाय को आज पशु कहा तो कहा, फिर मत कहना। गाय पशु नहीं है, विश्व की माता है। गाय को पशु कहनेवाला मुझे जरा भी नहीं सुहाता।'' यह है दैवीय गोपालन।


गाय को सामान्य आदर की दृष्टि से देखते हुए उसके लिए चारा-पानी की व्यवस्था करना, चारण के लिए गोचर भूमि में भेजना, उसके प्रजनन की उपयुक्त व्यवस्था करना, उन्नत साँड़ तैयार करना, उसे किसी प्रकार का कष्ट न होने देना, मानवीय गोपालन है।


गाय को पशु समझकर उसके दूध का दोहन करना, उसके बछिया/बछड़े को यथेच्छ दूध न देना, इन्जेक्शन लगाकर उसका दुहना, उसके चारे-पानी की समुचित व्यवस्था न करना, दूध दुहकर उसे इधर- उधर भटकने, कूड़ा खाने, गन्दा पानी पीने के लिए छोड़ देना, अमानवीय गोपालन है।


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